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________________ वर्णी-वाणी २६६ बालक के खान-पान में ही केवल १) दिन से कम व्यय नहीं होता। इस हिसाब से एक वर्ष में ३६५) हुए और ५ वर्ष में १८२५) हुए। यदि एक ग्राम में ४० ही वालक होंगे तो उनका व्यय ७३०००) हुआ। परन्तु यदि उनके आदर्श जीवन निर्माण के लिये, उन्हें शिक्षित बनाने के लिये उस ग्राम में या न सहो ग्राम प्रान्त में भी एक शिक्षालय खोलने की अपील की जावे तो बड़ी कठिनता से ५०००) भी मिलना अति कठिन है। इसका कारण हम लोग केवल जड़ की उपासना करने वाले हैं अतः शरीर से ही प्रेम है आत्मा से नहीं । व्यक्तिगत अपनी बात तो जाने दीजिये मन्दिर में जाकर भी जड़वाद की ही उपासना करते हैं। मूर्ति को चाकचिक्य रखना जानते हैं परन्तु जिसकी वह मूर्ति है उसकी आज्ञाओं पर चलना नहीं जानते। मूर्ति की सौम्यता से आत्मा की वीतरागता का अनुभव कर हमें उचित तो यह था कि आत्मा में कलुषित परिणामों के अभाव से ही शान्ति का उदय होता है और उन्हीं आत्माओं के वाह्य शरीर का ऐसा सौम्य आकार हो जाता है अतः उनकी आज्ञाओं पर चलकर अन्तर और बाहर सौम्य बनाने का प्रयत्न करते परन्तु इस ओर दृष्टि ही नहीं देते। इसका कारण यही है कि हम अपने चौबीसों घण्टे जड़वाद की उपासना में व्यय करते हैं। दिन भर अपने व्यापारादि कार्यों में इधर उधर के लोगों की वंचना करते हैं, थोड़ा समय निकाल कर यद्वा तद्वा अपनी शक्ति के अनुकूल जड़ भोजन कर तृप्ति कर लेते हैं, कुछ अवकाश मिला तो बालकों के साथ अपना मन बहलाव कर लेते हैं। कुछ अधिक सम्पन्न हुए तो मोटरों की फक फक द्वारा किसी बाग में जाकर नेत्रों से उसकी शोभा निरख कर, नाक से सुगन्ध लेकर और जीभ से फलादि चख Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003997
Book TitleVarni Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1950
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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