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________________ वर्णी-वाणी २५८ का व्यवहार नहीं करना चाहिये । अभिप्राय कितना स्वच्छ है किसी से बोलना नहीं चाहिये। ऐसा तो अन्य प्राणियों के प्रति आचार्य का उपदेश है परन्तु चारित्र मोहोदय से उत्पन्न हुई जो कषाय उसकी वेदना को दूर करने के लिये आचार्य स्वयं बोलते हैं । इसका यह तात्पर्य है कि कषाय जनित पीड़ा से निवृत्ति के लिये आचार्य का प्रयास है । राजवार्तिक में श्री कलङ्क देव ने उसकी भूमिका लिखते समय यही तो लिखा है - " नात्र शिष्याचार्य सम्बन्धो विवक्षितः किन्तु संसारसागरनिमग्नानेकप्राणिगणाभ्युजिहीर्षा प्रत्यागूणऽन्तरेण मोक्षमार्गोपदेशे हितोपदेशो दुष्प्राप्य इत्यत आह " सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्राणि मोक्षमार्ग" इति । अर्थात् श्री उमास्वामी को संसार दुःख से पीड़ित प्राणिवर्ग को देखकर हृदय में उनके उद्धार की इच्छा हुई और वही इच्छा सूत्र के रचने में कारणीभूत हुई । अभिप्राय यह है कि स्वामी का प्रयास इच्छाजनित आकुलता को दूर करना ही सूत्र निर्माण करने में मुख्य ध्येय था । अन्य प्राणी का उपकार हो जाय यह दूसरी बात है । किसान खेती करता है - उसका लक्ष्य कुटुम्ब पालनार्थ धान्य उत्पत्ति करने का रहता है । पशु-पक्षी सभी उससे उपकृत होते हैं परन्तु कृषक का अभिप्राय उनके पोषण का नहीं रहता यदि हमारी सत्य श्रद्धा यह हो जावे तो आज ही हम कर्तृत्व बुद्धि के चक्र से बच जावें । परमार्थ बुद्धि से विचार करो तब कोई द्रव्य किसी का कुछ करता ही नहीं । निमित्त कर्ता हो परन्तु वह उपादान रूप तो तीन काल में भी नहीं हो सकता । यथा 'जो जम्हि गुणे दब्बे सो अम्हि दु न संकमदे दब्वं । सो अणमसंकतो कह ते परिणामए दब्वं ॥' Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003997
Book TitleVarni Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1950
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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