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________________ वर्णी-वाणी लिङ्ग मोक्ष मार्ग है । किन्तु विचार करने पर मालूम पड़ता है कि कोई भी बाह्य लिङ्ग मोक्ष का मार्ग नहीं है । यदि बाह्य लिङ्ग मोक्ष का मार्ग होता तो अरहन्त भगवान् देह से निर्मम न होते और लिङ्ग को छोड़कर दर्शन, ज्ञान और चारित्र का सेवन नहीं करते । माना कि बहुत से अज्ञानी जन द्रव्य लिङ्ग को ही मोक्षमार्ग मानते हैं और मोह-पिशाच के वशीभूत होकर द्रव्य-लिङ्ग को स्वीकार करते हैं पर उनका ऐसा मानना और मोह - पिशाच के वशीभूत होकर द्रव्य-लिङ्ग को स्वीकार करना ठीक नहीं है, क्योंकि इससे संसार को हो वृद्धि होती है। जिनदेव ने तो दर्शन, ज्ञान और चारित्र को ही मोक्ष मार्ग कहा है, द्रव्य-लिङ्ग को नहीं, क्योंकि वह शरीराश्रित होता है। सच तो यह है कि जो मोक्षाभिलाषी जोव हैं उन्हें सागार और अनगार लिङ्ग से ममता का त्याग कर दर्शन, ज्ञान और चारित्र रूप जो मोक्षमार्ग है उसमें ही अपनी आत्मा को स्थापित करना चाहिये । श्री कुन्दकुन्द स्वामी ने सर्वविशुद्धि अधिकार में कहा है "मोक्खपदे णं ठवेहि तं चेव झाहि तं चेय । तत्येव विहर णिच्चं मा विहरसु अण्णदव्वेसु ||" २४२ आशय यह है कि अभेद रत्नत्रय रूप इस मोक्ष-मार्ग में ही अपनी आत्मा को स्थापित कर, उसी का ध्यान कर, उसी को अनुभवन कर और उसी में निरन्तर बिहार कर अन्य द्रव्यों में बिहार मत कर । यह जीव अनादि काल से अपनी ही प्रज्ञा के दोष से राग, द्वेषवश परद्रव्यों में अपनी आत्मा को स्थापित किये हु इसलिए अपने प्रज्ञा के गुण द्वारा उसे वहाँ से हटाकर दर्शन, ज्ञान और चारित्र में स्थापित करना चाहिये । इसी प्रकार इस Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003997
Book TitleVarni Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1950
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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