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________________ वर्णी-वाणी न तो आत्मा का भला ही कर सकते हैं और न बुरा ही कर सकते हैं । परन्तु जब उनका उदयकाल आता है तब आत्मा स्वयमेव रागादि रूप परिणम जाता है, इतना ही निमित्तनैमित्तिक सम्बन्ध है। जैसे-जब मोह का विपाक होता है अर्थात् जब मोहनीय कर्म फल देने में समर्थ होता है उस काल में आत्मा स्वयं रागादि रूप परिणम जाता है, कोई परिणमन करानेवाला नहीं है। यही नियम सर्वत्र है, जैसे-कुम्भकार घट को बनाता है, यहां भी यही प्रक्रिया है। अर्थात् कुम्भकार का व्यापार कुम्भकार में है, दण्डादि का व्यापार दण्डादि में है और मृत्तिका का व्यापार मृत्तिका में है। वास्तव में कुम्भकार अपने योग व उपयोग का कर्ता है किन्तु उनका निमित्त णकर दण्डादि में व्यापार होता है, अनन्तर मृत्तिका की प्रागवस्था का अभाव होकर घट बन जाता है । ऐसा सिद्धान्त है कि "यः परिणमति स कर्ता यः परिणामो भवेत्तत्कर्म ।" इस सिद्धान्त के अनुसार घटका कर्ता न तो कुम्भकार है और न ही दण्डादि हैं किन्तु मृतिका कर्ता है और घट कर्म है । परिणाम परिणामी भाव की अपेक्षा मृतिका और घट में कर्तृकर्म भाव तथा व्याप्यव्यापक भाव है। निमित्त नैमिन्तिक भाव की अपेक्षा कुम्भकार कर्ता और घट कर्म है । यही व्यवस्था सर्वत्र है । इसी प्रकार आत्मा में जो रागादि परिणाम होते हैं उनका परिणामी द्रव्य आत्मा है, अतः आत्मा कर्ता है और रागादि भाव कर्म हैं । इसी प्रकार आत्मामें वर्तमान में रागादि द्वारा जो अकुशलता रूप परिणाम होता है आत्मा उसका कर्ता है और रागादिक कर्म हैं । इस प्रकार रागादि परिणाम और परिणामी आत्मा इन दोनोंका परस्पर कर्तृकर्मभाव है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003997
Book TitleVarni Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1950
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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