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________________ २१९ सुधासीकर दूसरे की सत्ता से भिन्न भिन्न हैं। यदि ये सभी भाग एक होते ता दो अठन्नियों के मिलने पर भी ( एक रुपया व्यवहार न होकर) अठन्नो ही व्यवहार होता, परन्तु ऐसा नहीं होता । रुपये को रुपया कहा जाता है, अठन्नी को अठन्नी, चवन्नो को चवन्नी, और पाई को पाई। इससे सिद्ध है कि सभी पदार्थ अपनी अपनी सत्ता से पृथक् पृथक् हैं । जब भिन्नता को ऐसी स्थिति का ज्ञान हो जाय तब पर को अपना मानना सवथा निरीमूर्खता है। कार्तिक शु. १५ वी. २४६९ ____६२. जो भी कार्य करो, निष्कपट होकर करो, यही मानव को मुख्यता है। अगहन शु. १३ वी. २४६९ ६३. मन की शुद्धि बिना कायशुद्धि का कोई महत्त्व नहीं । ___ अगहन शु. १५ वी. २४६९ ६४. जो मनुष्य अपने मनुष्यपने को दुलभता को देखता है वही संसार से पार होने का उपाय अपने आप खोज लेता है। पौष कृ. ८ वी. २४६९ ६५. समय जो जाता है वह आता नहीं, मत आओ ओर उसके आने से लाभ भी नहीं; क्योंकि एक काल में द्रव्य को एक ही पर्याय होती है। तब जो समय विद्यमान है उसमें जो कुछ भी उपयोग बने करो, करना अपने हाथ की बात है केवल बातों से कुछ नहीं होगा। बातें करते करते अनन्त काल अतीत हो गया परन्तु श्रात्मा का हित नहीं हुआ। पौष कृ. १० वीराब्द २४६९ ६६. जो स्पष्ट व्यवहार करते हैं वे लोभवश अपयश के Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003997
Book TitleVarni Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1950
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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