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________________ ( १८ ) १० वर्ष की अवस्था में ( वि० सं० १९४१ में ) विद्यार्थी गणेशीलाल को सनातन धर्मी से जैनी बना दिया। इच्छा तो न थी परन्तु कुलपद्धति की विवशता थी अतः ( सं० १९४३ ) १२ वर्ष की अवस्था में यज्ञोपवीत संस्कार भी हो गया। विद्यार्थीजी ने ( सं० १६४६ ) १५. वर्ष की आयु में उत्तम श्रेणो से हिन्दी मिडिल तो उत्तीर्ण कर लिया परन्तु दो भाइयों का असामयिक स्वर्गवास और साधनों का अभाव अागामी अध्ययन में बाधक हो गया। मा० गणेशीलाल बाल जीवन के बाद युवक जीवन प्रारम्भ हुआ, विद्यार्थी जीवन के बाद गृहस्थ जीवन में पदार्पण किया, ( सं० १६४६ ) १८ वर्ष की आयु में मलहरा गाम को एक सत्कुलीन कन्या उनकी जीवन गिनी बनी। विवाह के बाद ही पिताजी का सदा के लिये साथ छूट गया लेकिन पिताजी का अन्तिम उपदेश-"बेटा ! जीवन में यदि सुख चाहते हो पवित्र जैन धर्म को न भूलना" सदा के लिये साथ रह गया। परिजन दुःखी थे, आत्मा विकल थी, परन्तु गृह भार का प्रश्न सामने था, अतः (सं० १६४६) मदनपुर कारीटोरन और जतारा आदि स्कूलों में मास्टरी की। पढना और पढ़ना इनके जीवन का लक्ष्य हो चुका था, अगाध ज्ञान सागर की थाह लेना चाहते थे अतः मास्टरी को छोड़ कर पुनः प्रच्छन्न विद्यार्थी के वेष में, यत्र तत्र सर्वत्र साधनों की साधना में, ज्ञान जल कणों की खोज में, वीर पिपासु चातक की तरह चल पड़े। धर्म पुत्र गणेशीलाल-- सं० १९५० के दिन थे, सौभाग्य साथी था, अतः सिमरा में एक भद्र महिला विदुषीरत्न श्री सि० चिरौंजाबाईजी से भेंट हो गई। देखते ही उनके स्तन से दुग्धधारा बह निकली, भवान्तर का मातृप्रेम उमड़ पड़ा। बाईजी ने स्पष्ट शब्दों में कहा-"भैया ! चिन्ता करने की आवश्यकता Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003997
Book TitleVarni Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1950
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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