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________________ वर्णी-वाणी १०६ ज्ञानी नहीं । इसके ऊपर जिसकी दृष्टि रही उसी का त्याग करने का प्रयत्न सफल हो सकता हैं । १६. जिसे त्यागधर्म का मधुर आस्वाद आ गया वह परिग्रह पिशाच के जाल में नहीं फँस सकता । २०. जब तक आत्मा में त्याग भाव न हो तब तक परोपकार होना कठिन है। परोपकार के लिये आत्मोत्सर्ग होना परमावश्यक हैं । आत्मोत्सर्ग वही कर सकेगा जो उदार होगा और उदार वही होगा जो संसार से भयभीत होगा । २१. जितना भी भीतर से त्यागोगे, उतना ही सुख पाओगे | २२. सच्चा धर्म वही हैं जो परिग्रह के त्याग करने का उपदेश देता है ग्रहण करने का नहीं । २३. जितना ही कषाय का उपशम होता है उतना ही त्याग होता है । २४. जो द्रव्य से ममता त्यागेगा उसे शान्ति मिलेगी और उसके चारित्र का विकास होगा । २५. लक्ष्मी को लोग अपना समझ कर दान करते हैं, तथा उससे अपना महत्त्व चाहते हैं । परन्तु सच तो यह है कि जो वस्तु हमारी नहीं उस पर हमारा कोई स्वत्व नहीं । उसे देकर महत्व की चाहना करना मूर्खता है । २६. हम लोग केवल शास्त्रीय परिभाषाओं के आधार से त्याग करने के व्यसनी हैं । किन्तु जब तक आत्मगत विचार से त्याग नहीं होता तब तक त्याग त्याग नहीं कहला सकता । ७५० Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003997
Book TitleVarni Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1950
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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