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________________ - - - - - निराकुलता __ १. निराकुलता ही धर्म है। ___२. हमारी समझ में यह नहीं आता कि गृहस्थधर्म में सर्वथा ही आकुलता रहती हैं, क्योंकि जहां सम्यग्दर्शन का उदय है वहाँ अनन्त संसार का कारण विकल्प होता ही नहीं फिर कौन सी ऐसी आकुलता है जो निरन्तर हमें बाधा पहुँचाये। केवल हमारी कायरता है जो विकल्प उत्पन्न कर तिल का ताड़ बना देती है। मेरी तो यह सम्मति है कि वाह्य परिग्रहों का बाधकपना छोड़ो और अन्तरङ्ग में जो मूर्छा है उसे ही बाधक कारण समझो, उसे ही पृथक् करने का प्रयत्न करो । उसके पृथक् करने में न साधु होने की आवश्यकता है और न ध्यानादि की आवश्यकता है । ध्यान नाम एकाग्र परिणति का है, वह कषाय वालों के भी होती है और वीतराग के भी होती है । अतः जहाँ विपरीताभिप्राय न होकर ज्ञान की परिणति स्थिर हो वही प्रशस्त है। ३. "शल्य रहित ही व्रती कहलाता है' आचार्यों का यह लिखना इतना गम्भीर अर्थ रखता है कि वचनागोचर है । धर्मका साधन तो करना चाहते है और उसके लिए घर भी छोड़ देते हैं, धन भी छोड़ देते हैं परन्तु शल्य नहीं छोड़ते । यही कारण है कि बिना फँसाये फँस जाते हैं । है। अह कषाय वालों का है। ध्यान नामवश्यकता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003997
Book TitleVarni Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1950
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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