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________________ बर्णी-वाणी होने से कौनसा विषय पुष्ट हुआ ? यदि इन गुणों में प्रेम हुआ तब उन्हीं की प्राप्ति के अर्थ ही तो प्रयास है। . १०. आत्मा शांति ही का अभिलाषी है, और वह शान्ति निज में है। केवल मोह ने उसे तिरोहित कर रखा है । मूर्ति के दर्शनमात्र से उस शान्तिका स्मरण हो जाता है तब हम विचारते हैं कि हे प्रभो ! हम भी तो इस वीतरागताजन्य शान्ति के पात्र हैं। और वह वीतरागता हमारी ही परणतिविशेष है। अब तक हमारी अज्ञानता ही उसके विकास में बाधक रही है । आज आपकी छवि के अवलोकन मात्र से हमको निज शान्ति का स्मरण हुआ है। ११. मोक्षमार्ग के परम उपदेष्टा श्री परम गुरु अरिहंत देव हैं। उनके द्वारा इसका प्रकाश हुआ है अतः हमें उचित है कि अपने मार्गदर्शक का निरन्तर स्मरण करें। परन्तु उन्हीं प्रभुका उपदेश है कि यदि मार्ग दृष्टा होने की भावना है तब हमारी स्मृति भी भूल जाओ। और जिस मार्ग को अङ्गीकार किया है उसी का अवलम्बन करो, अर्थात् पदार्थ मात्र में रागादि परणति को त्यागो क्योंकि यह परणति उस पद की प्राप्ति में बाधक है । . १२. धन्य है प्रभो तेरी महिमा ! आप की भक्ति जब प्राणियों को संसारबन्धन से मुक्त कर देती है, फिर यदि ये क्षुद्र बाधाएँ मिट जावें तो इसमें आश्चर्य हो क्या ? परन्तु भगवन् ! हम मोही जीव संसार की बाधाओं को सहने में असमर्थ हैं । क्षुद्र क्षुद्र कार्यों की पूर्ति में ही अचिन्त्य भक्ति के प्रभाव को खो देते हैं। आपका तो यहाँ तक उपदेश है कि यदि मोक्ष की कामना है तब मेरी भक्ति को भी उपेक्षा कर दो क्योंकि वह भी संसारबन्धन का कारण है । जो कार्य निष्काम किया जाता Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003997
Book TitleVarni Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1950
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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