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________________ संशय, युक्ति और विश्वास B डॉ. राजेन्द्र स्वरूप भटनागर [मनुष्य के जीवन-व्यवहार में तथा ज्ञान में विश्वास की कितनी भूमिका है, इसका दार्शनिक दृष्टि से विश्लेषण करते हुए डॉ. भटनागर ने युक्ति या तर्क से होने वाले ज्ञान में भी विश्वास का महत्त्व स्वीकार किया है। विश्वास एक प्रकार से श्रद्धा है जिसे जैनागमों में सम्यग्दर्शन कहा गया है। डॉ. भटनागर ने जैनदर्शन के इस पारिभाषिक शब्द की चर्चा किए बिना इसके महत्त्व का उद्घाटन किया है तथा अंधविश्वास से बचने की ओर संकेत किया है। -सम्पादक ___ आपने मुझे कुछ बताया। अब मैं कैसे जानें कि आपने जो मुझे बताया वह विश्वास के योग्य है, सत्य है, अनुसरण के योग्य है, उचित है, वस्तुतः श्रेष्ठ है अथवा उत्तम है? ऐसी शंका करने पर यदि आप धीर और सहिष्णु हैं, तो कदाचित् आप मुझे समझायें, कोई दृष्टान्त दें, अथवा किन्हीं युक्तियों के द्वारा अपनी बात को सिद्ध करना चाहें। कई बार तो शायद आप इतना ही कहना चाहें कि क्या तुम्हें मुझ पर विश्वास नहीं? - संवाद की ऐसी स्थिति में यह बात ध्यान देने योग्य है कि 'मैं जो जिज्ञासा करता हूं, शंका करता है तथा 'आप' जो मेरी शंका का समाधान करते हैं, मेरे प्रश्न का उत्तर देते हैं, के बीच क्या रिश्ता है। यह रिश्ता गुरु-शिष्य का हो सकता है, दो सम-अवस्था वाले व्यक्तियों के बीच का रिश्ता हो सकता है, जांच कर्ता तथा साक्षी के बीच का सम्बन्ध हो सकता है, आदि। साथ ही स्थिति का स्वरूप एवं परिवेश, यानी देश काल का संदर्भ भी ध्यातव्य है। ___ शंका नहीं करते हुए कई बार हम किसी बात को सुनते ही या पढ़ते ही स्वीकार कर लेते हैं, मान लेते हैं। ऐसा करते समय हमारा स्वीकार गम्भीर हो सकता है तथा सहज एवं अचिन्तित भी हो सकता है। जो शंका या संशय हमें ऐसी बात के विषय में होता है, वह कई बार किसी बाद की स्थिति में होता है। उस स्थिति में जब हम किसी सम्बन्धित घटना से टकराते हैं, अथवा अपने गतानुभव की दृष्टि के कारण या युक्तिवश हमारा ध्यान पुनः उस बात पर चला जाता है। संशय और विश्वास, जांच पड़ताल और युक्तियुक्त विचार की ये स्थितियां दैनन्दिन जीवन-व्यापार में साधारण जान पड़ती हैं। संवाद तथा पठन के अतिरिक्त ज्ञान-संबंधी संशय और शंका 'ज्ञान' के हमारे अपने प्रयास से भी सम्बद्ध होते हैं। किसी विषय के सम्बन्ध में जब हम जानने का प्रयास करते हैं, किसी प्रकार का अनुसन्धान करते हैं, तो कई बार हमें लगता है कि हम उस विषय के सम्बन्ध में जो जान पाये हैं, वह अल्प और अपर्याप्त है, भ्रान्त है अथवा अस्पष्ट एवं अनिश्चित है। जानने के संदर्भ में संशय तथा शंका के संदर्भ साधारण दैनन्दिन व्यापार में किसी रूप में उलझते और सुलझते रहते हैं। इन * पूर्व आचार्य,दर्शन-विभाग,राजस्थान विश्वविद्यालय,जयपुर (राज) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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