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________________ ३४२...... जिनवाणी-विशेषाङ्क काम-भोगों को क्षणिक सुख का अनुभव कराने वाला, किंतु बहुत लम्बे समय तक दःखों को प्रदान करने वाला बताया गया है। इनमें सुख की मात्रा स्वल्प, किन्तु दुःख की मात्रा अत्यधिक मानी गई है। इनको अनर्थों की खान एवं मोक्ष का प्रतिगामी माना गया है, यथा खणमित्तसुक्खा, बहुकालदुक्खा, पगामदुक्खा अणिगामसुक्खा। संसारमोक्खस्स विपक्खभूया, खाणी अणत्थाण उ कामभोगा ।उत्तरा. १४.१३ आप्त महापुरुषों के एवंविध वचनों को प्रमाण मानता हुआ सम्यग्दृष्टि जीव, काम-भोगों एवं भोगोपभोगों की प्राप्त सामग्री के प्रति प्राय: अनासक्त रहकर पापपंक में नहीं फंसता है; जबकि मिथ्यादृष्टि जीव इनके दुष्परिणामों से अनभिज्ञ होने के . कारण इनका सेवन करता रहता है और पापों का संचय करता रहता है । (९) विचारों के साथ व्यवहार में भी परिवर्तन सम्यकदर्शनी की कथनी और करनी में एकरूपता होती है। उसके विचार दुर्भावना रहित होते हैं। उन्हीं के अनुरूप वह राग-द्वेष एवं आर्त-रौद्रध्यान से बचकर समता-भाव पूर्वक जीवन-यापन करता है। वह विचारों में उत्कृष्टता के साथ आचरण की उत्कृष्टता का भी ध्यान रखता है। अतः सभी के प्रति अच्छे विचारों के साथ व्यवहार में भी अच्छाई अपनाने के कारण उन सभी पापकारी प्रवृत्तियों से बचा रहता है जो दुर्विचार एवं दोष पूर्ण व्यवहार के फलस्वरूप उसके जीवन को अभिशप्त करने वाली होती हैं। (१०) आत्मतुल्य भाव होना-सम्यग्दृष्टि के ज्ञान-चक्षु सदैव खुले रहते हैं, अतः वह समस्त लोक के प्राणिमात्र को अपनी ही आत्मा के सदृश मानता और देखता है। जिस प्रकार उसको दुःख का वेदन होने पर वह दुःखों से बचना चाहता है उसी प्रकार उसकी दृष्टि में अन्य प्राणियों को भी कष्ट की अनुभूति होती है और वे उससे बचने का प्रयास करते हैं। अतः जिस प्रकार वह स्वयं दुःखी नहीं होना चाहता वैसे ही दूसरों को भी खेदित व दुःखी नहीं करता और न किसी जीव को असाता पहुंचाता है। वह हर समय सजग रहकर चिंतन करता है कि एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक के सभी जीवों में एक जैसी आत्मा की विद्यमानता है। यहाँ तक कि सिद्धों की आत्मा और अन्य प्राणियों की आत्मा में मौलिक भेद कुछ भी नहीं है, जो अंतर है वह मात्र कर्मों की सत्ता का है। अतः सम्यग्दृष्टि जीव बराबर ध्यान रखता है कि प्रमादवश किसी प्राणी का उसके द्वारा प्राण हरण न हो। वह सभी के प्रति मैत्री, प्रमोद, अनुकम्पा आदि के भाव रखता हुआ जीवन व्यतीत करता है, जिसके परिणाम स्वरूप वह पाप कार्यों से सहज ही बच जाता है, जबकि मिथ्यादर्शनी जीव का चिंतन एवं व्यवहार स्वार्थ पूर्ति तक ही सीमित रहता है और अन्य प्राणियों के प्रति उपेक्षा-भाव रखने से वह पापों का बंधन करता रहता है। (११) पापभीरू होना–सम्यग्दृष्टि श्रावक की आत्मा बलवान् होती है। सांसारिक भय उसे तनिक भी व्याप्त नहीं होता और न ही किसी शक्ति विशेष से वह भयभीत होता है। वह भयभीत होता है तो मात्र पापों से। पापों का उपार्जन पापकारी प्रवृत्तियों के सेवन से होता है जो शास्त्रों के उल्लेखानुसार १८ प्रकार की होती हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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