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________________ सम्यग्दर्शन : संपादकीय धर्म की बुराइयों को भी अच्छाई समझते हैं तथा अन्य धर्मों की अच्छाइयों को भी बुराईके रूप में देखते हैं। एक धर्मानुयायी की अन्य धर्मानुयायियों के प्रति इस प्रकार की पक्षपात पूर्ण दृष्टि साम्प्रदायिकता कही जाती है। सम्प्रदाय का होना बुरा नहीं, किन्तु सम्प्रदायाभिनिवेश का होना बुरा है। यह सम्प्रदायाभिनिवेश मनुष्य को संकीर्ण बनाता है। सम्प्रदाय जहाँ अधिगमज सम्यग्दर्शन का निमित्त बनती है वहाँ साम्प्रदायिकता सम्यग्दर्शन पर आवरण डाल देती है। साम्प्रदायिकता का दोष विश्व के अन्य धर्मों की भांति जैनों में भी दिखाई देता है। जैनों में जैनेतर धर्मों के प्रति घृणा एवं हीनता का भाव प्राय: कम है , किन्तु जैनों की जो उपसम्प्रदायें हैं वे एक दूसरे के अनुयायियों को मिथ्यात्व के कलंक से दूषित करती हैं। यह दोष व्यवहार-सम्यक्त्वियों में ही पाया जाता है, निश्चय सम्यक्त्वयों में नहीं। निश्चय सम्यग्दर्शन हो जाने पर बाह्य मान्यता-भेद एवं बाह्याचरण उतना प्रधान नहीं रहता, जितना व्यवहार सम्यग्दर्शन में प्रधान बना रहता है। बाह्याचरण के कारण एक दूसरे को हीन समझने एवं घृणा करने का कार्य निश्चय सम्यग्दृष्टि नहीं कर सकता, क्योंकि वह रागादि की प्रगाढ़ता से मुक्ति पा लेता है। सम्यग्दर्शन होने पर ज्ञान तो सम्यक होता ही है, किन्तु आचरण भी सम्यक् हो. जाता है। जब तक आचरण सम्यक् नहीं होता तब तक वह मुक्ति का साधन नहीं बनता। सम्यग्दर्शन (निश्चय) के अभाव में बाह्य तप-त्याग भी कोई उल्लेखनीय महत्त्व नहीं रखते । आचारांगसूत्र की नियुक्ति में आचार्य भद्रबाहु ने कहा है - कुणमाणो वि निवित्ति, परिच्चयंतो वि सयणधणभोए। दितो वि दुहस्स उरं, मिच्छादिट्ठी न सिज्झई ।।-आचारांगनियुक्ति, २२० । अर्थात् मिथ्यादृष्टि प्राणी संसार से निवृत्ति लेता हुआ भी, स्वजन, धन एवं भोगों का त्याग करता हुआ भी तथा दुःखियों की सहायता करता हुआ भी सिद्ध नहीं होता। मुक्ति या सिद्धि प्राप्त करने के लिए मिथ्यादर्शन का त्याग करना अनिवार्य है तभी सम्यग्दर्शन का प्रकीटकरण होगा एवं मुक्ति की ओर चरण बढेंगें। जैनदर्शन का यह वैशिष्ट्य है कि इसमें मिथ्यात्व का सम्बन्ध ज्ञान से नहीं दृष्टि से स्वीकार किया गया है। ज्ञान सम्यक् है या मिथ्या यह दृष्टि पर निर्भर करता है। इसीलिए नन्दीसूत्र में कहा गया है कि सम्यग्दृष्टि के मति एवं श्रुत सम्यक् ज्ञान हैं जबकि मिथ्यादृष्टि के मति एवं श्रुतज्ञान मिथ्याज्ञान हैं। मिथ्यादर्शन को शल्य की उपमा दी गई है। मिथ्यादर्शन एक ऐसा कण्टक है (शल्य) जो मनुष्य को पीड़ित एवं दुःखी करने में निमित्त तो बनता है, किन्तु इस शल्य का मनुष्य को प्राय: भान नहीं होता। मिथ्यात्व का भान होने पर ही सम्यक्त्व की उपलब्धि होती है। मिथ्यात्व को तोड़ना तब संभव है जब उसकी स्थिति ७० कोटाकोटि सागरोपम से घटकर एक कोटाकोटि सागरोपम से भी न्यून रह जाती है। अर्थात् मिथ्यात्व की सघनता जब अत्यन्त कमजोर पड़ जाती है तो सम्यक्त्व की उपलब्धि होती है। आज हम प्राय : मिथ्यात्वदशा में ही जी रहे हैं। विषय-भोग हमें प्यारे लगते हैं। इन्द्रिय-जय एवं मनोजय में हमारी रुचि नहीं है, हमारी रुचि है इन्हें उत्तरोत्तर भोगों में लगाने में। पर से सुख मिलेगा, यह मान्यता ही मिथ्यात्व है। सूक्ष्मता से कहें तो भोगों में Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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