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________________ (Blamelessness), 9) संस्कृति-अनूकुल (Suitable to culture) एवं 10) भारदेयता (Burden/Obligation) का सम्यक विचार करना जरूरी है और यही ग्रहण-प्रबन्धन है। 2) सुरक्षा प्रबन्धन जिस प्रकार अर्थ को सम्यक्तया ग्रहण करना आवश्यक है, उसी प्रकार गृहीत अथवा संचित अर्थ की सम्यक् सुरक्षा करना भी एक अनिवार्य कर्त्तव्य है, यही सुरक्षा-प्रबन्धन है। कई बार अर्थोपार्जन तो किया जाता है, किन्तु समुचित सुरक्षा नहीं हो पाती। इसके मुख्य कारण हैं – 1) आलस्य, 2) लापरवाही एवं 3) अत्यधिक फैलावा। ग्रहण उतना ही करना चाहिए, जिसकी हम आवश्यक सुरक्षा एवं रख-रखाव कर सकें। जैन-मुनि का यह आचार है कि वह आवश्यक वस्तु की ही याचना करे एवं याचना से प्राप्त वस्तु की सुरक्षा में लापरवाही न बरते। यही कारण है कि साधु रात्रि में शयन के समय : उपकरणों, जैसे - ओघा, मुँहपत्ति, पात्र, आसन आदि को अपने निकट ही रखते हैं। यहाँ तक कि ओघा एवं मुँहपत्ति को छोड़कर एक हाथ से अधिक दूर जाना भी कल्प्य नहीं है।193 जैन-श्रावक के लिए भी जैन-मुनि के समान ही सुरक्षा-दायित्व निर्दिष्ट हैं, जिनके माध्यम से उसे आसक्ति की नहीं, अपितु जागरुकता की शिक्षा दी गई है। यह स्पष्ट कहा गया है कि मुनि के साथ-साथ श्रावक वर्ग भी अपने क्रोध, मान, माया एवं लोभ आदि आवेगों (कषायों) को उपशान्त रखे। वह धैर्य, सन्तोष, क्षमा, सरलता आदि सद्गुणों का विकास करता हुआ अपना जीवन-प्रबन्धन करे, किन्तु जागरूकता के अभाव में वह इनका समुचित पालन नहीं कर पाता। कई बार वह परिग्रह-विस्तार के लिए तो जागरूक रहता है, किन्तु विद्यमान परिग्रह की सुरक्षा के लिए लापरवाही बरतता है। इसी कारण, प्रायः घरों, उद्योगों एवं दुकानों में रखे शाक, फल, धान्य, वस्त्र, फर्नीचर आदि सड़ते रहते हैं, जिनमें कई बार कीड़े भी पैदा हो जाते हैं। इससे अर्थ का अनावश्यक अपव्यय एवं नुकसान तो होता ही है, अनगिनत जीवों की हिंसा का दोष भी लगता है। अधिक मुनाफे के प्रलोभन में व्यक्ति कई बार अपने वेयरहाऊस एवं स्टोररुम में वस्तु का अतिसंग्रह कर लेता है, किन्तु उसका विक्रय नहीं होने की स्थिति में वस्तु की नियत कालमर्यादा पूरी हो जाती है। इससे न सिर्फ व्यापारी का नुकसान होता है, अपितु वस्तु के उत्पादन एवं विनिमय में प्रयुक्त श्रम, समय, ईन्धन, संसाधन आदि का नुकसान भी होता है। कई बार प्राकृतिक प्रकोप, जैसे - अतिवृष्टि, बाढ़, आँधी, तूफान, चक्रवात, आर्द्रता आदि होते रहते हैं। ये कई बार सामयिक, तो कई बार असामयिक भी होते हैं और इनसे भी अत्यधिक हानि होती है। सुरक्षा व्यवस्था में खामियाँ होने से निजी और सरकारी - दोनों क्षेत्रों में सीमेंट, लकड़ी, अनाज, वाहन, मशीनें, लोहा आदि सम्पत्तियों की अरबों-खरबों रूपयों की हानि होती है। किन्तु यह उचित नहीं है, क्योंकि इससे न तो हम उपलब्ध संसाधनों का उपयोग करते हैं और न ही दूसरों के उपयोग हेतु सहयोगी बनते हैं। यह हमारी प्रमादवृत्ति का उदाहरण है। अनेकों बार अमानवीय कार्यों, जैसे - आगजनी, तोड़-फोड़, दंगे-फसाद आदि से भी अनावश्यक 60 जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व 588 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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