SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 114
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (12) व्यक्ति के कार्यकाल का स्थायित्व (Stability of Tenure of Personnel) - जहाँ तक सम्भव हो, कर्मचारियों के कार्यकाल का स्थायित्व होना चाहिए, जिससे वे निश्चिन्तता, निष्ठा, उत्तरदायित्व एवं तत्परता के साथ कार्य कर सकें।208 इस सन्दर्भ में यदि हम जैनदृष्टिकोण से विचार करते हैं, तो पाते हैं कि उसकी संघीय व्यवस्था में आचार्य आदि के जो पद दिए जाते हैं, वे सभी भले ही आपवादिक परिस्थितियों में अल्पकालिक होते हैं, किन्तु सामान्य परिस्थितियों में जीवनपर्यन्त के लिए ही होते हैं,209 अतः कार्यकाल के स्थायित्व के सन्दर्भ में जैनधर्मदर्शन और फेयॉल की मान्यता में एकरूपता दिखाई देती है। (13) पहल (Initiative) - कुशल प्रबन्धकों को चाहिए कि वे अपने अहंकार का त्याग कर ऐसा वातावरण निर्मित करें कि अधीनस्थों की योग्यता एवं सम्पन्नता का विकास हो सके। इससे बुद्धिमान् कार्यकर्ताओं को पहल करने की स्वतन्त्रता मिलती है और कार्य-सन्तुष्टि (Job Satisfaction) भी अधिक होती है, जिससे वे बिना इंगित या प्रेरित किए ही कार्य करने लगते हैं।10 जैनधर्मदर्शन में प्रेरणा और पहल दोनों ही अलग-अलग माने गए हैं। अन्य व्यक्तियों के द्वारा प्रेरणा तो दी जा सकती है. किन्त पहल तो स्वयं को ही करनी होती है। साधना के क्षेत्र में जैनधर्मदर्शन में भी आचार्य आदि के द्वारा ग्रामानुग्राम विचरण करते हुए सदुपदेश के माध्यम से ऐसा वातावरण निर्मित होता है, जिससे लोगों में धर्म (नैतिक एवं आध्यात्मिक मूल्य) के प्रति श्रद्धा सुदृढ़ होती है और वे किसी के दबाव में नहीं, अपितु स्वप्रेरणा से आध्यात्मिक-विकास की साधना की पहल करते हैं।211 (14) सहकारिता और टीम भावना (Espirit de Corps) - संगठन में सहकारिता और सामूहिकता की भावना को प्रोत्साहित करना चाहिए। संगठन के विकास के लिए दो नीतियों से बचना चाहिए - क) फूट डालो, शासन करो तथा ख) संवादरहित लिखित सम्प्रेषण प्रणाली। यदि लिखित संप्रेषण की आवश्यकता भी हो, तो वह वाणी-सम्प्रेषण के साथ हो, जिससे कार्य की गति, विचारों की स्पष्टता और सम्बन्धों की मधुरता में अभिवृद्धि हो सके।12 ___जहाँ तक पारस्परिक सहयोग का प्रश्न है, जैनधर्मदर्शन का कहना यही है कि सहयोग जीवन की एक अनिवार्यता है। जैनदर्शन में हमेशा मैत्री, प्रमोद, करूणा और माध्यस्थ्य भावना की प्रेक्षा करने पर बल दिया गया है,213 जिससे सहभागिता की भावना बनी रहे। तत्त्वार्थसूत्र में भी उमास्वाति ने ‘परस्परोपग्रहो जीवानाम्' कहकर यह स्पष्ट कर दिया है कि जीवन का नियम पारस्परिक सहयोग है (The law of life is the law of cooperation)|14 इस पारस्परिक सहयोग की भावना के विकास हेतु जैनआचारमीमांसा में 'फुट डालो और शासन करो' की कुटिल नीति के बजाय 'जिओ और जीने दो' की सम्यक् शैली को प्रोत्साहित किया जाता है। जहाँ तक संवादरहित लिखित संप्रेषण-प्रणाली का 56 जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy