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________________ न्यायाधीश परस्पर विरोधी दावेदारों का निर्णय बहुत ही समीचीन रूप से करता है और उसमें वादी और प्रतिवादी दोनों के साथ न्याय किया जाता है। अनेकान्तवाद के आधार पर अपेक्षा भेद से पिता को पुत्र और पुत्र को पिता कहा जा सकता है । आत्मा को भी अपेक्षा भेद से नित्य और अनित्य दोनों कहा जा सकता है। आत्मा द्रव्यदृष्टि से नित्य और पर्याय दृष्टि से अनित्य हैं। निश्चयदृष्टि या तत्त्वदृष्टि से आत्मा एक है, परन्तु व्यवहार दृष्टि से आत्मा अनेक है। इस प्रकार दार्शनिकों के समस्तवाद (द्वैत्वाद, अद्वैतवाद, भेदवाद, अभेदवाद आदि) अनेकान्तवाद में उसी प्रकार मिल जाते हैं जिस प्रकार सभी नदियाँ महासागर में मिलकर तद्रूप हो जाती हैं। 4 वस्तु के स्वरूप का विवेचन करने वाला कोई भी एकांगी मत तब तक ही अपूर्ण और असत्य होता है, जब तक वह अनैकान्तिक दृष्टि से नहीं देखा जाता है अर्थात् जब तक वह निरपेक्ष कथन करता है। जैसे किसी घड़ी के विभिन्न पुर्जे अलग-अलग बिखरे पड़ें हैं तो उन अलग-अलग पुर्जों को घड़ी नही कहा जाता है। परन्तु वही पुर्जे जब एक साथ मिल जाते हैं तब वे घड़ी बनकर उपयोगी सिद्ध हो जाते हैं। उसी प्रकार जब अलग-अलग बिखरे एकान्तवाद मिलकर एक हो जाते हैं या परस्पर सापेक्ष बन जाते हैं तब वे अनेकान्तवाद बनकर वस्तु स्वरूप के सर्वांश के बोधक बन जाते हैं। 5 आचार्य महाप्रज्ञजी के कथनानुसार जिस व्यक्ति की अनेकान्त रूपी तीसरी आँख खुल जाती है उसके लिए कोई भी मत मिथ्या नहीं होता है। वह व्यक्ति सापेक्षता की कसौटी पर ही सत्य और असत्य की परीक्षा करता है। उसके लिए जो कथन सापेक्ष है, वह सत्य है और जो कथन निरपेक्ष है, वह असत्य है । हरिभद्रसूरि ने कहा- महावीर के प्रति मेरा पक्षपात नहीं है और कपिलादि के प्रति मेरा द्वेष भी नहीं है। जिनका वचन युक्तिसंगत है, वे ही मुझे मान्य हैं। ऐसी बात अनेकान्त के 93 जैनदर्शन स्वरूप और विश्लेषण, देवेन्द्रमुनि, पृ. 234 94 उदधाविव सर्वसिन्धव समुदीर्णास्त्वयिद्रष्टयः । न च तासु भगवन् प्रदृश्यते अविभक्तासु सरित्सिववादेधिः । । 95 सिद्धसेन जैनदर्शन स्वरूप और विश्लेषण, देवेन्द्रमुनि, पृ. 234 से उद्धृत 95 धर्मदर्शन मनन और मूल्यांकन, देवेन्द्रमुनि, पृ. 163 96 अनेकान्त है तीसरा नेत्र, महाप्रज्ञजी, पृ. 82 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003974
Book TitleDravya Gun Paryay no Ras Ek Darshanik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyasnehanjanashreeji
PublisherPriyasnehanjanashreeji
Publication Year2012
Total Pages551
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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