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________________ 11. रौद्रध्यान के चिन्तन के विषय 12. धर्मध्यान के आलंबन 13. शुक्लध्यान के आलंबन 14. क्या ध्यान के लिए आलंबन की आवश्यकता है ? 15. आलम्बन से निरालम्बन की ओर 254-309 चतुर्थ अध्याय 1. ध्यान का स्वामी 2. ध्याता और ध्यातव्य में भेदाभेद का प्रश्न 3. ध्याता के आध्यात्मिक विकास की विभिन्न भूमिकाएँ (चौदह गुणस्थान} 4. आर्तध्यान के स्वामी की विभिन्न भूमिकाएँ 5. रौद्रध्यान के स्वामी की विभिन्न भूमिकाएँ 6. धर्मध्यान के स्वामी की भूमिका के सम्बन्ध में श्वेताम्बर तथा दिगम्बर-परम्परा का मतभेद 7. धर्मध्यान में पिण्डस्थ, रूपस्थ एवं रूपातीत ध्यानों का स्वरूप 8. पार्थिवादि चार प्रकार की धारणाओं का स्वरूप एवं जैन-परम्परा में विकास पंचम अध्याय 310-364 1. ध्यानशतक और स्थानांग, भगवती, औपपातिक, तत्त्वार्थ, मूलाचार, भगवती' आराधना, धवला, आदिपुराण का तुलनात्मक अध्ययन 2. ध्यान-साधना और लब्धि 3. साधक को लब्धियों की प्राप्ति से बचना चाहिए 4. जैन-परम्परा में लब्धियों की गौणता 5. ध्यान और कायोत्सर्ग 6. कायोत्सर्ग और समाधि Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003973
Book TitleJinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyashraddhanjanashreeji
PublisherPriyashraddhanjanashreeji
Publication Year2012
Total Pages495
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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