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________________ इनके ग्रन्थों में न तो चार्वाक-दर्शन को स्थान मिला, न ही जैन और बौद्ध-दर्शन को, जबकि हरिभद्र ने वैदिक, अवैदिक- सभी दर्शनों का समावेश अपने ग्रन्थ में परिचय के लिए कर दिया, अतः वाचस्पति मिश्र भी हरिभद्रसूरि की तुलना में समकक्ष नहीं रह पाए। जैन-परम्परा में लिखे गए दर्शन सम्बन्धी ग्रन्थों में हरिभद्रसूरि के पश्चात् सर्वप्रथम 'सर्वसिद्धान्तप्रवेशक' प्राप्त होती है, परन्तु इसका रचनाकार कौन है, यह आज तक भी अज्ञात है, फिर भी यह तथ्य है कि यह कृति किसी जैनाचार्य की है, क्योंकि मंगलाचरण में “सर्वभाव प्रणेतारं प्रणिपत्य जिनेश्वरं"- ऐसा उल्लेख प्राप्त होता है। पं. सुखलाल संघवी के अनुसार प्रस्तुत ग्रन्थ की शैली हरिभद्र के 'षड्दर्शनसमुच्चय' का ही अनुसरण करती है। अन्तर मात्र इतना है कि हरिभद्र का ग्रन्थ पद्य में एवं विस्तृत है, जबकि सर्वसिद्धान्त प्रवेशक गद्य में तथा संक्षिप्त है। इसके अतिरिक्त जैन-दार्शनिकों के ग्रन्थों में दूसरा स्थान जिनदेवसूरि के शिष्य आचार्य 'जिनदत्त सूरि' (वि. सं. 1265) के 'विवेक विलास' नामक ग्रन्थ का आता है। इस ग्रन्थ के आठवें उल्लास में 'षड्दर्शन विचार' नामक प्रकरण है, जिसमें जैन, बौद्ध, मीमांसक, सांख्य, शैव और नास्तिक दर्शन का परिचयात्मक विवरण हरिभद्र के 'षड्दर्शन-समुच्चय' के समान है। ___पं. दलसुखभाई मालवणिया के अनुसार इस ग्रन्थ की एक विशेषता तो यह है कि इसमें न्याय, . वैशेषिकों का समावेश किया है। मेरी दृष्टि में इसका कारण हरिभद्र के षड्दर्शन-समुच्चय का अनुकरण करना ही है, क्योंकि जिनदत्तसूरि ने भी न्यायदर्शन के देव के रूप में शिव की ही स्तुति की है "अक्षपादमते देवः सृष्टि संहार कृच्छिव"।।13।। यह ग्रन्थ हरिभद्र के षड्दर्शन-समुच्चय की तरह परिचयात्मक और निष्पक्ष विवरण प्रतिपादित करता है। इसके अतिरिक्त जैन दार्शनिक-ग्रन्थों की परम्परा में राजशेखर (वि. 1265) कृत 'षड्दर्शनसमुच्चय' का विवरण प्राप्त होता है। राजशेखर व हरिभद्र द्वारा कुछ अन्तर से एक ही विषय में, एक नाम से, एक समान ग्रन्थ की रचना की गई, परन्तु दोनों ग्रन्थों की जब तुलना करते हैं, तो ज्ञात होता है कि दर्शनों के प्रस्तुतिकरण में हरिभद्र ने षड्दर्शन-समुच्चय में जैन-दर्शन को चौथा स्थान दिया है, जबकि राजशेखर जैन-दर्शन को प्रथम स्थान देते हैं। वे दर्शनों के क्रम में निष्पक्ष दृष्टिकोण नहीं अपना सके। 42 षड्दर्शन-समुच्चय की प्रस्तावना, पृ. 7 43 समदर्शी आचार्य हरिभद्रसूरि, पृ. 43 44 षड्दर्शन-समुच्चय की प्रस्तावना, पृ. 13 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003972
Book TitlePanchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji
PublisherKanakprabhashreeji
Publication Year2013
Total Pages683
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size10 MB
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