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________________ कहा- “साधुओं को सभी प्रकार के नाटक नहीं देखना चाहिए, चाहे वह स्त्री का हो, अथवा पुरुष का। मुनियों ने कहा- “अब आगे से ऐसा नहीं करेंगे। हमारा यह दुष्कृत्य मिथ्या हो।" प्रथम तीर्थंकर के समय ऐसे ऋजुजड़ जीव थे। उन्हें जितना कार्य या कर्तव्य बताया जाता, उतना और वैसा ही जानते तथा पालते थे, उससे अधिक नहीं। भगवान् महावीर के शासन के साधु वक्रजड़ होते हैं- उनके विषय में भी उपर्युक्त नट का दृष्टान्त है। साधु गोचरी को गए। रास्ते में विलम्ब हुआ। आचार्य द्वारा विलम्ब का कारण पूछने पर उन्होंने कहा- "हम नट का नृत्य देख रहे थे।" आचार्य ने नट-नृत्य देखने का निषेध किया। कालांतर में पुनः विलम्ब से आने पर गुरु महाराज ने पूछा, तो कुटिल होने के कारण उन साधुओं ने उद्दण्डतापूर्वक जवाब दिया कि वे नटी का नृत्य देख रहे थे। गुरु ने जब अपनी पूर्व आज्ञा का स्मरण कराया कि उन्होंने नृत्य देखने से मना किया था, तो वे बोले कि आपने तो केवल नट का नृत्य देखने से मना किया था, हम तो नटी का नृत्य देख रहे थे। अस्थिर भाव तथाविध सामग्री से अशुद्ध होता है, किन्तु वह अशुद्ध भाव चारित्र का घात नहीं करता है, जैसे- वज्र अग्नि से गरम होता है, किन्तु अपने स्वभाव को नहीं छोड़ता है, क्योंकि वजत्व स्थिरभाव हैं और उष्णत्व अस्थिरभाव। इसी प्रकार, चारित्र में स्थिर जीवों के द्वारा विस्मृति आदि के कारण स्खलना हो जाती है और अतिचार लग जाता है, किन्तु तीव्र संक्लेश न होने के कारण चारित्ररूप परिणाम (स्वभाव) का नाश नहीं होता है। वक्रजड़ साधुओं के चारित्र के लिए शंका की गई कि वक्रजड़ साधु भी चारित्रवान् कैसे हो सकते हैं ? प्रस्तुत प्रश्न का समाधान आचार्य हरिभद्र ने स्थितास्थितकल्पविधि-पंचाशक की अड़तालीसवीं, उनपचासवीं एवं पचासवीं गाथाओं में विशद रूप से किया है जिस प्रकार प्रथम तीर्थंकर के साधुओं का स्खलन उनके चारित्र का बाधक नहीं है, उसी प्रकार अंतिम जिन के साधुओं का स्खलन भी काल के प्रभाव से होने के कारण चारित्र का बाधक नहीं है, क्योंकि वह अनेक बार प्रायः मातृका-स्थान, अर्थात् मायारूप संज्वलन-कषाय का सेवन करता है, न कि अनन्तानुबन्धी-कषाय का। | पंचाशक-प्रकरण - आ. हरिभद्रसूरि- 17/48, 49, 50 - पृ. - 311 551 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003972
Book TitlePanchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji
PublisherKanakprabhashreeji
Publication Year2013
Total Pages683
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size10 MB
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