SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 539
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आचार्य हरिभद्र प्रस्तुत पंचाशक की उन्नीसवीं गाथा में' छेद से अपराधशुद्धि होने के कारण को बताते हुए कहते हैं दीक्षापर्याय कम करने से (साधु की संयम-पर्याय छेदने से) साधु का दूषित अध्यवसाय दूर होता है, क्योंकि दीक्षापर्याय कम करने से साधु में संवेग, निर्वेद आदि गुण उत्पन्न होते हैं। इन गुणों के परिणामस्वरूप आप्तोपदेश के पालन से बुद्धिमान् साधु शुद्ध होता है। आचार्य हरिभद्र ने प्रस्तुत पंचाशक की बीसवीं एवं इक्कीसवीं गाथाओं में मूल आदि गुणों का वर्णन करते हुए प्रायश्चित्त के स्वरूप का विवेचन इस प्रकार किया आलोचनादि सात प्रायश्चित्तों के व्रण का दृष्टान्त से निरूपण किया गया है। मूल, अनवस्थाप्य और पारंचिक-प्रायश्चित्त के योग्य अपराधों में सम्यक्-चारित्र के अभाव के कारण व्रत के दृष्टान्त की विचारणा नहीं है। मूल आदि प्रायश्चित्त सम्यक-चारित्र के सर्वथा अभाव होने पर ही होता है, इसलिए अग्रिम गाथाओं में मूल आदि प्रायश्चित्तों का स्वरूप भी बताया गया है। संकल्पपूर्वक किए गए प्राणवध, मृषावाद आदि अपराधों में चारित्र-धर्म का अभाव होने पर चारित्र के परिणाम से रहित उस साधु में महाव्रतों की पुनः स्थापना करना 'मूल' नामक प्रायश्चित्त है। आचार्य हरिभद्र ने प्रायश्चित्तविधि-पंचाशक की बाईसवीं गाथा में अनवस्थाप्य–प्रायश्चित्त का स्वरूप स्पष्ट किया है। आगम में अनवस्थाप्य-प्रायश्चित्त के योग्य दोषों के सम्बन्ध में जो कहा गया है, उसके अनुसार साधर्मिक, अथवा अन्य किसी व्यक्ति की उत्तम वस्तुओं की चोरी, हस्तताड़ना (किसी को हाथ से या पैर से मारना) आदि करने पर चारित्र-अभावजनक दुष्ट अध्यवसाय होने से जब तक उचित तप पूर्ण न करें, तब तक जिसे महाव्रत न दिए जाएं, वह अनवस्थाप्य है। प्रायश्चित्त और | पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि- 16/19 - पृ. - 282 पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि-16/20, 21 – पृ. - 282 पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि- 16/22 - पृ. - 283 | पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि- 16/23 - पृ. - 283 519 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003972
Book TitlePanchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji
PublisherKanakprabhashreeji
Publication Year2013
Total Pages683
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy