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________________ बिजली की तरह है। बिजली चमकती है, चकाचौंध करती है और ओझल हो जाती है। जीवन भी ऐसा ही है। किसी से जुड़े, किसी से टूटे और पता भी नहीं चल पाता कि कब जीवन धराशायी हुआ। इसलिए सोचो, कहां है ध्रुवता, कहां है शाश्वतता । सबकुछ तो बिखरता चला जा रहा है, कोई खुदरा तो कोई थोक। कोई कण-कण तो कोई मन-मन । लोग सोचते हैं यह धन-दौलत टिकाऊ है, थिर है। इसे ज्यादा से ज्यादा कमाया जाये। यों आदमी का सारा जीवन दौलत के जाल में उलझा रहता है। आदमी की दृष्टि में उसकी कीमत है। इसलिए वह उसे पाने में अपनी जिन्दगी खर्च कर देता है। दौलत के भार से दबकर वह अपने प्राण खो देता है । फिर दौलत का कोई भरोसा नहीं है। कब आयी और कब चली गई। अतः दौलत शाश्वत कहां है, सुखकर कहां है! सोचते हैं मकान स्थायी रहेगा। इसलिए आदमी उसे अपनी मंजिल समझ लेता है। अपनत्व का उस पर आरोपण हो जाने के कारण व्यक्ति उसे अपनी अंतिम मंजिल मान बैठता है। मगर यह अन्तिम मुकाम कहां है ! शरीर को हम अपना समझते है, सोचते हैं कि यह तो अपने साथ रहेगा। मगर नहीं । यह शरीर भी एक दिन पीले पत्ते की तरह गिरने वाला है। हम परिजनों को भी अपना मानकर सोचते हैं कि ये मेरा हमेशा साथ देंगे। पर मरने के बाद वे ही हमारे शरीर पर कफन ओढ़ायेंगे और राम-राम सत है, कहते हुए हमें ले चल पड़ेंगे मरघट की ओर। पत्नी घर के दरवाजे तक पहुंचाती है। इसलिए सोचो अपने रिश्तों में छिपी क्षुद्रता को, अशाश्वतता को। कहां है यहां ध्रुवता! कुछ भी तो नहीं है ध्रुव- शाश्वत । समय बदलता जा रहा है। मनुष्य बदल रहे हैं। मां-बाप बदल रहे हैं। पत्नियां, बच्चे, मकान सब कुछ बदलते जा रहे हैं। आज जो मेरा बाप है कल वही मेरा बेटा हो सकता है। आज जो महल है कल वही खंडहर हो सकता है। - वास्तव में यह संसार सपने के समान है। अभी दिख रहा है। सपना आया, मुंह में लड्डू था। जैसे ही आंख खोली तो पाया कि मुंह खाली का खाली है। लड्डु खाने का सपना तो देखा, पर जब पेट को देखा तो आंखों से आंसू ढुलक पड़े। वह तो पाताल में बैठा था । संसार भी तो ऐसा ही है। सब अपने लगते हैं पर अपना कोई नहीं रह पाता । जीवन की देहरी पर बहुत बार यह जीवन एक धोखा लगता है, सूना-सूना लगता है। खाली-खाली, खोयाखोया लगता है। जिनका संसार से मोह है, वे संसार के जलने पर रोते है और जिनका संसार से मोह टूट गया वे स्वयं संसार को जलाकर निकल जाते है। संसार और समाधि Jain Education International 9 For Personal & Private Use Only - चन्द्रप्रभ www.jainelibrary.org
SR No.003899
Book TitleSansar aur Samadhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1991
Total Pages172
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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