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________________ भूत-पदार्थों का ही परिणाम है। शरीर के भूत पदार्थ या उसके परमाणु अपने आप ही सक्रिय हो जाते हैं, जब उन्हें शरीरगत परमाणुओं का दूर से या नजदीक से साहचर्य मिलता है । देखने से, मिलने से या स्पर्श से शरीर के परमाणु प्रभावित होते ही हैं । चित्त और मन तक उस प्रभावकता की संवेदना पहुँचती है और इस 1 1 तरह मनुष्य बहिर्योगी और बहिर्मुखी हो जाता है । मन और इन्द्रियों के धर्म से, कोरी बातें करके मुक्त नहीं हुआ जा सकता। उसके लिए एक सतत जागरूकता चाहिये, योग का अभ्यास चाहिये, जीवन के हर उतार-चढ़ाव के प्रति एक सहिष्णुता और मौन चाहिए। गीता भी अभ्यास पर जोर देती है । वैराग्य उसकी दूसरी अपेक्षा है। पतंजलि भी योग की सिद्धि के लिए अभ्यास और वैराग्य पर जोर देते हैं | अभ्यास के मायने हैं- करने में अकर्मण्य मत बनो, रोज करो । वैराग्य के मायने हैं - सबके प्रति मन में मौन होना । मूर्च्छा और आसक्ति की पथरीली जमीन से हटना ही वैराग्य है । वैराग्य को हम सादगी कह सकते हैं । व्यक्ति-विशेष या वस्तु- विशेष अथवा स्थान- विशेष से आसक्ति नहीं । I 1 योग के लिए अभ्यास जरूरी है, सतत जागरूकता जरूरी है। शुरुआती दौर में तो योग स्वयं एक अभ्यास ही होता है, पर बाद में अभ्यास से व्यक्ति ऊपर उठ जाता है । तब सतत जागरूकता ही बचती है । पहले तो प्रयासपूर्वक परमात्मा का ध्यान लगाया जाता है, बाद में अनायास ही, ध्यान में नहीं बैठे हैं, तब भी भगवान का ध्यानयोग तो रहता ही है । यह तुरीय अवस्था है, एकीभाव हुए योग की अवस्था है । आप योग के लिए बैठें, तो कुछ बातों का ध्यान रखें। पहली बात यह कि जहाँ ध्यानयोग करें, वह स्थान शान्त और स्वच्छ हो । वहाँ किटाणु, गंदगी या दुर्गन्ध न रहे । झाड़-पोंछकर, स्वच्छ निर्मल कर लो । दूसरी बात यह कि नंगे फर्श पर योग मत करो, क्योंकि पृथ्वी का गुरुत्वाकर्षण तुम्हारे आन्तरिक ऊर्ध्वारोहण में अवरोधक बनेगा । इसलिए आसन का उपयोग करें । आसन भी कुछ मोटा हो और वह भी नरम | सीधे काठ या पत्थर पर बैठ गये, तो पैरों के अकड़ने का, सो जाने का, या दुःखने का डर रहता । आसन मोटा और नरम होना चाहिये, ताकि आराम से योग के लिए बैठ सको । सफेद ऊनी आसन का उपयोग किया जा सकता है । निज से मंगल मैत्री | 77 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003890
Book TitleJago Mere Parth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2002
Total Pages234
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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