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________________ में से तुम कौन-सी चीज अलग कर चढ़ाने को तैयार हो ? स्वयं को समर्पित कौन करता है । दो चार फूल, या जल-बेल पत्र चढ़ा देते हैं, पर स्वयं के कर्तृत्व-भाव को, अहं-भाव को कौन न्यौछावर करता है । हम भगवान के चरणों में स्वयं को लुटाते कहाँ है; हम तो लूटना चाहते हैं। जबकि यह वह मार्ग है, जहाँ लुटाना ही पड़ता है । पाना तो बहुत बाद में होता है, पहले तो खोना पड़ता है । बहुत कुछ पाने के लिए बहुत कुछ खोना पड़ता है । यहाँ चवन्नी चढ़ाने से काम नहीं चलता, यहां तो सर्वस्व चढ़ाने से काम बनता है । कुनकुने पानी से भाप नहीं बनती, भाप बनाने के लिए तो पानी को खौलाना ही होगा। परमात्मा को जीवन के साथ एकलय, एकरस, एकसूत्र बनाने के लिए सर्वस्व मिटना होता है । मिटना ही यहां पाना है । अगर बादल से बरसने वाली बूंद यह सोचती रहे कि सागर में जाकर मिल जाऊं, तो पूरी ही मिट जाऊंगी। तब वह अपने आपको बचा लेती है, लेकिन वह सागर नहीं पाती। बंद को अगर सागर होता है, तो उसे सागर में मिलना होगा, मिटना होगा, पहले तो बंद मिटती है सागर में और फिर सागर मिट जाता है बूंद में । पहले तो बूंद सागर में जाकर विलीन हो जाती है, फिर सागर ही बूंद में आकर निमज्जित हो जाता है । समाधि की शुरुआत बूंद का सागर में मिटना है और समाधि की पूर्णता सागर का बूंद में आकर ओत-प्रोत हो जाना है। आदमी जब अपने आपको पूरी तरह खो ही देता है, तो परमात्मा का प्रसाद कब, किस क्षण, किस रूप में आकर बरसेगा, कहा नहीं जा सकता । एक सेव को छीलते हुए भी परमात्मा का अनुग्रह, उसका ग्रेस हम पर आकर बरस जायेगा, रास्ते पर चलते हुए भी हम उसके अहोभाव से भर जायेंगे, एक ग्राहक से बात करते हुए हम पाएंगे कि जैसे हमारे हृदय में आनंद का कोई निर्झर फूट रहा है । परमात्मा हमसे दूर नहीं है, न कठिन है । वह बहुत ही सरल, बहुत ही सहज और बहत ही करीब है। भगवान के जिन चरणों की सेवा लक्ष्मी करती है, उसी विष्ण भगवान को गोप बालाएँ अपने साथ गेंद खेलने का न्यौता दे ही देती हैं और भगवान स्वीकार कर ही लेते हैं। जिस भगवान की पूजा और अर्चना गणेश, महेश, दिनेश कर रहे हैं, उस भगवान को अहीर की छोरियां एक गिलास छाछ के लिए अपने आगे नृत्य करवा देती हैं। योगक्षेमं वहाम्यहम् | 109 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003890
Book TitleJago Mere Parth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2002
Total Pages234
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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