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________________ चंद्रमा-सा शीतल, मणि-सा कांतिवान, पृथ्वी-सा सहिष्णु, सर्प-सा अनियत आश्रयी तथा आकाश-सा निरालंब साधु ही परमपद मोक्ष की यात्रा पर है। ___ यह क्रांतिकारी सूत्र है। महावीर जैसे व्यक्ति ही ऐसे सूत्रों की अभिव्यक्ति दे सकते हैं। इस सूत्र में ऋजुता, मृदुता और भद्रता तो है ही साथ ही साधना की तेजस्विता भी है। मृग-सा सरल, पर सिंह-सा तेजस्वी। अद्भुत प्रयोग है यह। साधक की प्रथम उपमा है-सिंह सा पराक्रमी। सिंह अकेला, निडर विचरता है। उसे टोले की जरूरत नहीं होती। 'सिंहों के नहीं लेहड़े, साधु न चले जमात। रवीन्द्रनाथ टैगोर ने कहा है, 'जदि तोरे डाक सूने कोउ न आसे तोए एकला चलो रे। सिंह किसी संगठन का हिस्सा नहीं होता, न ही किसी सम्प्रदाय का अंग होता है। वह अपने ही बल, अपने पैरों पर है, अकेला, बिल्कुल अकेला ही जीता है। महावीर अपने साधना-काल में बारह वर्षों तक सिंह की तरह विचरे, नितान्त अकेले। वे न किसी से बोलते, न किसी का संग-साथ करते। जंगलों में, पहाड़ों में, गाँव-गाँव नगर-नगर में महावीर की ही मौन गर्जना, सिंहनाद थी। सिंह की तरह पराक्रमी बनना होगा। साधना के लिए सबकुछ दाँव पर लगाना होगा, जरा भी बचाया कि चूक गए। महावीर सिंह की तरह पराक्रमी थे। हमारे चौबीसों तीर्थकर क्षत्रिय कुल से सम्बन्धित थे। क्षत्रिय कभी आश्रय की तलाश नहीं करता, वह अपने ही पुरुषार्थ और पराक्रम से लक्ष्य का संधान करता है। महावीर के जीवन की एक अद्भुत घटना है। कहते हैं महावीर साधना-काल के प्रारम्भिक चरण में थे। एक ग्वाला आया और साधना में खड़े महावीर को अपनी गायें रखवाली के लिए दे गया। सांझ को वापस आया तो देखा महावीर तो वैसे ही साधना में खड़े हैं पर गायें नदारद थीं। उसने महावीर से अपनी गायों के बारे में पूछा, मगर महावीर तो ध्यान और मौन में थे, सो कोई जवाब न दिया। क्रोधित ग्वाले ने महावीर की चाबुक से पिटाई करनी चाही। तभी इन्द्र ने प्रकट होकर ग्वाले को लताड़ा और प्रभु से कहा आपके साधनाकाल में कई संकट आएँगे, अगर आप अनुमति दें तो मैं संकट निवारण के लिए सेवा में रह जाऊँ। महावीर ने तब मुस्कराते हुए कहा कि साधना स्वयं के पराक्रम और पुरुषार्थ से ही पूर्ण होती है। इसमें भला किसी के सहयोग की कैसी साधना की सच्ची कसौटी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003886
Book TitleDharm Aakhir Kya Hai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalitprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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