SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 129
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बंद था। युवक ने जोर से दरवाजे को धक्का दिया। भीतर आया, इधर-उधर जूते फेंके और बोकोजू को प्रणाम किया और हाँफते हुए कहा, 'शान्ति की आकांक्षा रखता हूँ, कोई मार्ग बताएँ। बोकोजू ने कहा, 'पहले खड़ा हो और जाकर दरवाजे से माफी माँग, जूतों को नमस्कार कर।' युवक ने कहा, 'क्या मतलब ? दरवाजे से माफी ! जूतों को नमस्कार ! अरे, ये तो जड़ पदार्थ हैं, इनसे माफी ?' बोकोजू ने कहा, 'क्रोध करते समय तुमने यह न सोचा कि तू जड़ पदार्थों पर क्रोध कर रहा है। अरे, इन जड़ चीजों ने तुम्हारी चेतना को आंदोलित कर दिया। जूते को जब क्रोध से फेंका, तब न सोचा कि जूते पर क्या क्रोध करना। दरवाजे को कितनी अशिष्टता से धक्का दिया। जाओ वापस और क्षमा माँगकर आओ, नहीं तो मेरे पास आने की आवश्यकता नहीं। ___ यह व्यक्ति कृष्ण लेश्या से घिरा है। उसने जानकर क्रोध नहीं किया होगा। क्रोध उसका अंग बन गया है। मैं चलते हुए व्यक्ति को देखकर बता सकता हूँ कि वह किस स्थिति में चल रहा है। क्रोधी व्यक्ति की चाल कुछ और होगी, प्रेम से भरे व्यक्ति की चाल कुछ और होगी। देखना कि तुम किन्हीं भाव-दशाओं के नाम पर विभाव-दशाओं में लिप्त तो नहीं हो गए हो। कहीं ऐसा तो नहीं कि क्रोध, अहंकार, हिंसा तुम्हारी विवशता बन गए हैं, दुष्टता तुम्हारा स्वभाव बन गई है। यह दिखाई दे जाए तो समझो कृष्ण लेश्या पहचान में आ गई है। जिससे मुक्त होना है आखिर उसको देख लेना जरूरी है। ___लोग ऐसे होते हैं जो जन्म-जन्म तक वैर की गाँठ बाँधकर रखते हैं। सबकुछ भूल जाते हैं, वैर नहीं भूलते। ऐसा भी होता है कि पीढ़ी-दर-पीढ़ी वैर चलता ही रहता है। पुश्तैनी दुश्मनी में क्या रखा है ? बाप मर जाता है तो बेटे को सीख दे जाता है कि अमुक अपना दुश्मन ! वैर शुरू किसी ने किया, वे कभी के मर चुके दादा-परदादा, लेकिन दुश्मनी जारी है, पुश्तैनी दुश्मनी। भगवान कहते हैं न हि वैरेण वैराणी, सम्मन्तीध-कदाचन अवैरेण हि सम्मन्ती एस धम्मो सनंतनो। वैर से कभी वैर शांत नहीं होता। जैसे–खून से सना वस्त्र खून से साफ नहीं होता। अवैर से वैर मिटेगा, यही विश्व का सनातन धर्म है। 120 धर्म, आखिर क्या है ? Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003886
Book TitleDharm Aakhir Kya Hai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalitprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy