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________________ सा। उसकी काति-चमक है। हमारी निगाहें माणसा कातिवान साधक की ग्यारहवीं दशा है 'मणि-सा कांतिवान....'। मणि-रत्न कितने चित्ताकर्षक होते हैं। हमारी निगाहें मणि को देखकर ठगी-सी रह जाती हैं। उसकी कांति-चमक हमें चकाचौंध कर देती है। भगवान कहते हैं कि साधक भी 'मणि की तरह कांतिवान' हो। उसकी देशना इतनी सम्मोहक हो कि श्रावक चकित रह जाए; उसकी चेतना इतनी मुखर हो कि सब सम्मोहित हो जाएँ। साधु के पास पहुँचते ही हमारे ऊपर अमृत-वर्षा होने लग जाए, उसकी मधुर वाणी धीरे-धीरे प्राणों में घुलने लग जाए। जैसे मणि दूसरे रत्नों की ओर नहीं देखने देती, जैसे मणि देखकर हम दूसरे रत्नों को देखना भूल जाते हैं वैसे ही साधक से अभिभूत होकर संसार की ओर देखना भूल जाएँ। साधक की कांति हमें नूतन दर्शन प्रदान करे। हमारे चिंतन की धारा को नवीन प्रवाह दे। साधक के लिए अगली कसौटी है—'पृथ्वी के समान सहिष्णु.....' कुछ भी हो जाए, साधक अपनी चेतना में स्थिर रहे पृथ्वी की भाँति। कितने भी तूफान आएँ, आँधी आए, वर्षा हो या आग लग जाए, पृथ्वी निष्कंप, स्थिर, अडोल रहती है। साधु की सहिष्णुता इसी तरह अटूट रहे। दुःख आए या सुख, अपमान हो या सम्मान, निंदा हो या यश मिले साधक डगमगाता नहीं है। वह तटस्थ भाव से, साक्षी-भाव से सब देखते हुए इनसे उपरत रहता है। साधक सर्प-सा अनियंत आश्रयी बने। अगर सहिष्णुता पृथ्वी जैसी हो तो सर्प के समान अनियत आश्रयी भावना। सर्प अपना घर नहीं बनाता। जहाँ जगह मिल गई, विश्राम कर लेता है। घर सुरक्षा का साधन है और साधक को सुरक्षा से क्या मतलब ! जब घर-द्वार छोड़ ही दिया तो जहाँ डेरा डाल दिया वहीं विश्राम। हम इस संसार में परदेसी हैं। यह सतत स्मरण बना रहे कि यहाँ घर नहीं बनाना है। यहाँ तो हम यात्री हैं, यात्री की तरह रहें। आज हैं, कल चले जाना है, फिर चारदीवारी से कैसा राग ! यहाँ तो पड़ाव पर रुकना है, मंजिल कहीं दूर है। हमें तो मंजिल पानी है। सतत गतिमान रहना साधक की तेरहवीं गुण दशा है। अंतिम गुण है-'आकाश-सा निरावलंब', साधक कोई सहारा न खोजे। आकाश बिना किसी आश्रय के स्थित है। आकाश की कोई नींव नहीं है, खंभे नहीं हैं जिन पर यह टिका हो, बस, निरावलंब। साधक भी ऐसा ही हो स्वयं साधना की सच्ची कसौटी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003886
Book TitleDharm Aakhir Kya Hai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalitprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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