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________________ जनक के जीवन से असत् का, अज्ञान का, आसक्ति का संसार स्वतः विलीन हो गया। अंधकार स्वतः तिरोहित हो गया। स्वयं में समाहित ज्ञान का दीप जल उठा। वे प्रतिष्ठित हो गए स्वयं की आत्म-सत्ता में। मोह-ममता, अहं-आकांक्षा वैसे ही दूर हो गए, जैसे किसी का भ्रम दूर हो जाता है, जैसे किसी की आंख खुल जाती है, जैसे किसी चातक की प्यास पूरित हो जाती है। जैसे कोई ओनामी जाग उठता है। ___ओनामी अपने समय का एक शक्तिशाली पहलवान! जब वह अपने अखाड़े में उतरता, तो अपने गुरुओं को भी पछाड़ देता, जिनसे उसने कुश्ती के दांव-पेच सीखे थे, लेकिन दंगल में उतरता, तो अपने ही शिष्यों से शिकस्त खा जाता। वह उलझन में फंस गया। ओनामी अपने ही समय के ज़ेन संत हाकुजू से मिला। हाकुजू ने कहा-तुम तो सागर में उठती महातरंग हो। आओ, मेरे साथ बैठो और ध्यान में उतरो। ध्यान में उतरकर तुम अपने आप को महातरंग के रूप में देखो। ओनामी ने वैसा ही किया। वह ध्यान में उतरा। पहले पहल तो मन कुछ और सोचता रहा, मगर जैसे-जैसे उसका ध्यान स्थिर होता चला गया, वैसे-वैसे उसने देखा कि उसके भीतर एक महान् तरंग उठ रही है। उसने देखा कि जिस मंदिर में वह बैठा है, उसकी प्रतिमा भी उसी महान तरंग की चपेट में आ गई और उसको भी वह महातरंग अपने साथ बहा ले गई। तरंग उठती चली गई। सारा संसार उसी तरंग की चपेट में आ रहा है और यह तरंग ऐसे ही सबको लीलती चली जा रही है। सागर में उठने वाली तरंग, जो बड़े-बड़े जहाजों को निगल जाया करती है, उससे भी कहीं अधिक भयावह थी यह महातरंग। अगली सुबह जब हाकुजू ने ओनामी को देखा, तो लगा कि उसके चेहरे पर एक अलग ही आभा है, एक अलग ही मुस्कान है, आत्मविश्वास से भरी मुस्कान। उसे यह जानते देर नहीं लगी कि ओनामी का ध्यान सध गया है। उस दिन के बाद तो पूरे जापान में ओनामी के मुकाबले का कोई दूसरा पहलवान नहीं हुआ। जैसे ओनामी की महातरंग में बड़े-बड़े सूरमा परास्त हो गए, वैसे ही जनक के जीवन में जब आत्मज्ञान की महातरंग आविर्भूत हुई, तो संस्कारों और वासनाओं के जहाजों को ऐसे लील गई, जैसे कुछ था ही नहीं। जब कोई व्यक्ति आत्मज्ञान की संपदा से अभिभूत हो जाता है, तो उसके आनंद की कोई सीमा नहीं रहती। जो व्यक्ति सीमा के भीतर असीम को देख ले, क्षण के भीतर शाश्वतता को निहार ले, काया के भीतर कायनात का दर्शन कर ले, उसकी खुशी का अंदाजा लगाया जा सकता है? रोम-रोम रस झरेगा, अंग-अंग से आत्मज्ञान की आभा फूटेगी। ऐसे ही असीम आनंद से जनक ओत-प्रोत हो 24 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003867
Book TitleNa Janma Na Mrutyu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherPustak Mahal
Publication Year2003
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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