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________________ की तरफ जा रहा था, तो राजसैनिकों ने उसे देखा और पकड़ लिया। उसे अगले दिन सुबह राजा के दरबार में पेश किया गया। उससे पूछा गया कि वह आधी रात को नगर में क्यों घूम रहा था, तो उसने सच्ची बात बता दी। राजा उसकी सच्चाई और प्रामाणिकता से बड़ा प्रभावित हुआ। उसने कहा कि 'तुम राजा के सामने खड़े हो, जो चाहो मांग लो, तुम्हें निराश नहीं लौटाया जाएगा।' कपिल हैरान ! वह एकाएक सोच नहीं पाया कि क्या माँगे? उसने राजा से पांच मिनट का समय मांगा और दरबार में एक तरफ जाकर विचार करने लगा कि क्या मांगा जाए। अब कपिल के मन में तरंगें उठने लगीं। उसने सोचा कि दो माशा सोना क्या मांगू, यह तो बहुत कम है। आगे भी धन की जरूरत पड़ेगी। ऐसा करता हूँ दो सोनैया मांग लेता हूँ। नहीं, यह भी कम रहेंगे। मैं सौ सोनैया मांग लूं। उसे यह भी कम लगे।सोचते-सोचते वह एक लाख सोनैया तक पहुँच गया, मगर तय नहीं कर पाया। अंत में वह इस निर्णय पर पहुँचा कि जब उसने वचन दे ही दिया है, तो क्यों नहीं राजा से उसका राज्य ही मांग लूँ, वह खुद ही तो दे रहा है। समय पूरा हुआ देख, राजा ने कहा, 'ब्राह्मण ! इतना समय क्यों?' ब्राह्मण शब्द सुनते ही अचानक उसकी अन्तश्चेतना जागृत हुई कि कपिल ! तू यह क्या कर रहा है ? जिस राजा ने तुम्हें मुंह मांगा देने का वचन दिया, क्या तू उससे उसका पूरा राज्य ही छीन लेगा? तू आया था महज दो माशे सोने के लिए और.... । वह राजा के सामने कुछ बोल न पाया। उसके सामने उसकी इच्छाएँ ही प्रश्नचिह्न बनकर खड़ी हो गयीं। उसकी चेतना में एक हूक उठी। क्या मनुष्य की इच्छाओं का कोई अन्त है ? क्या राजा का राज्य पाकर तेरी इच्छा शांत हो जायेगी। नहीं, कपिल ! नहीं!! उसकी नजरें नीचे झुक गयीं और वह कुछ बोल न पाया। राजा ने कपिल को पुनः सम्बोधित किया तो कपिल बोला, 'राजन् ! ब्राह्मण क्षमाप्रार्थी है। मैं आया था, तो दो माशा सोने की आस थी, पर मन की चंचलता तो देखिये, कामनाओं का मकड़जाल भी कितना विचित्र है ! मैं दो माशा सोने से बढ़ते-बढ़ते लाखों सोनैया मांग लेने की इच्छा करने लगा, और अन्ततः तो राजन् ! आपका राज्य भी ! पर ब्राह्मण शब्द सुनते ही अन्तरमन ने ऐसी करवट बदली कि...... अब मुझे कुछ नहीं चाहिये। मेरी आत्मा जाग उठी है। कपिल अब ब्रह्मज्ञान की साधना के लिए जंगलों में जाएगा। जाते-जाते इतना ही कहूँगाइच्छाएँ असीम-अपूर्ण हैं। मन के प्रति सजगता हो, तो ही वे तिरोहित हो सकती हैं। और कपिल जंगल की ओर रवाना हो गया। राज-दरबार में खड़ा हर व्यक्ति स्तब्ध रह गया। कपिल उन्हें गंभीर विचार के लिए एक बिन्दु दे गया था। मनुष्य की अन्तश्चेतना कितनी सुषुप्त रहती है ? कहाँ दो माशा सोने की चाह और कहाँ पूरा राज्य लेने की इच्छा? मनुष्य की यह तृष्णा वृत्ति समाप्त नहीं होती। जब तक ऐसा नहीं होता, आदमी अध्यात्म के मार्ग पर कदम नहीं बढ़ा सकता। जब तक उसके तृष्णा के तार नहीं टूटेंगे, यही होता रहेगा। आदमी सोता रहेगा, जाग नहीं सकेगा। जिस व्यक्ति ने अपने मन की अनर्गलता को पहचान लिया, समझ लिया, वही धर्म के मर्म को पहचान पाएगा। Jain Education International For Persor28. Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003859
Book TitleAdhyatma ka Amrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalitprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2010
Total Pages112
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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