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________________ ८८ ] [कर्म सिद्धान्त पड़ता है और वे वर्तमान में बध्यमान प्रकृतियों के अनुरूप परिवर्तित हो जाती हैं। सीधे शब्दों में कहें तो वर्तमान में हमारी जो आदत बन रही है, पुरानी आदतें बदल कर उसी के अनुरूप हो जाती हैं। यह सबका अनुभव है। उदाहरणार्थ-प्रसन्नचन्द्र राजर्षि को ले सकते हैं। प्रसन्नचन्द्र राजा थे। वे संसार को असार समझ कर राजपाट और गृहस्थाश्रम का त्याग कर साधु बन गये थे। वे एक दिन साधुवेश में ध्यान की मुद्रा में खड़े थे। उस समय श्रेणिक राजा भगवान् महावीर के दर्शनार्थ जाते हुए उधर से निकला । उसने राजर्षि को ध्यान मुद्रा में देखा। श्रेणिक ने भगवान् के दर्शन कर भगवान् से पूछा कि ध्यानस्थ राजर्षि प्रसन्नचन्द्र इस समय काल करें तो कहाँ जाये। भगवान् ने फरमाया कि सातवीं नरक में जावें। कुछ देर बाद फिर पूछा तो भगवान् ने फरमाया छठी नर्क में जावें। इस प्रकार श्रेणिक राजा द्वारा बार-बार पूछने पर भगवान् ने उसी क्रम से फरमाया कि छठी नर्क से पांचवी नर्क में, चौथी नर्क में, तीसरी नर्क में, दूसरी नर्क में, पहली नर्क में जायें। फिर फरमाया प्रथम देवलोक में, दूसरे देवलोक में, क्रमशः बारहवें देवलोक में, नव ग्रेवयक में, अनुत्तर विमान में जावें। इतने में ही राजर्षि को केवलज्ञान हो गया। हुआ यह था कि जहाँ राजर्षि प्रसन्नचन्द्र ध्यानस्थ खड़े थे। उधर से कुछ पथिक निकले। उन्होंने राजर्षि की ओर संकेत करके कहा कि अपने पुत्र को राज्य का भार सम्भला कर यह राजा तो साधु बन गया और यहाँ ध्यान में खड़ा है। परन्तु इसके शत्रु ने इसके राज्य पर आक्रमण कर दिया है। वहाँ भयंकर संग्राम हो रहा है, प्रजा पीड़ित हो रही है । पुत्र परेशान हो रहा है। इसे कुछ विचार ही नहीं है। यह सुनते ही राजर्षि को रोष व जोश पाया। होशहवाश खो गया। उसके मन में उद्वेग उठा । मैं अभी युद्ध में जाऊँगा और शत्रु सेना का संहार कर विजय पाऊँगा । उसका धर्म-ध्यान रौद्र-ध्यान में संक्रमित हो गया। अपनी इस रौद्र, घोर हिंसात्मक मानसिक स्थिति की कालिमा से वह सातवीं नर्क की गति का बंध करने लगा। ज्योंही वह युद्ध करने के लिए चरण उठाने लगा त्योंही उसने अपनी वेश-भूषा को देखा तो उसे होश आया कि मैंने तो राजपाट त्याग कर संयम धारण किया है । मेरा राजपाट से अब कोई संबंध नहीं। इस प्रकार उसने अपने आपको सम्भाला। उसका जोश-रोष मन्द होने लगा। रोष या रौद्र ध्यान जैसे-जैसे मंद होता गया, घटता गया, वैसे-वैसे नारकीय बन्धन भी घटता गया और सातवीं नर्क से घटकर क्रमशः पहली नर्क तक पहुंच गया। इसके साथ ही पूर्व में बन्धे सातवीं आदि नर्को की बंध की स्थिति व अनुभाग घटकर पहली नर्क में अपवर्तित हो गये। फिर भावों में और विशुद्धि आई। रोष-जोश शांत होकर संतोष में परिवर्तित हो गया तो राजर्षि देव गति का बन्ध करने लगा । इससे पूर्व ही में बन्धा नर्क गति का बन्ध Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003842
Book TitleJinvani Special issue on Karmsiddhant Visheshank 1984
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1984
Total Pages364
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size7 MB
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