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________________ ५० जैन कर्म सिद्धान्त और विज्ञान : पारस्परिक अभिगम Jain Educationa International जैन कर्म सिद्धान्त को समझने के लिए "आत्मा" के स्वरूप को समझना श्रावश्यक है और इसके वैज्ञानिक विवेचन के लिए आत्मा अथवा जीव के सम्बन्ध में वैज्ञानिक धारणा क्या है, दोनों धारणाओं में कोई अन्तर है या मूलतः एक ही हैं, इसके लिए वैज्ञानिक इतिहास का अवलोकन करने से ज्ञात होता है कि प्रारम्भिक काल में वैज्ञानिक पदार्थों के गुण, स्वभाव, शब्द, प्रकाश, विद्युत इत्यादि के अनुसंधान में लगे रहे। मानव के जीवन एवं आत्म स्वभाव - ज्ञान, राग, द्वेष, भावना इत्यादि प्रश्नों की ओर उनका ध्यान न था । प्राचीन वैज्ञानिकों में से अधिकतर ज्ञान को भौतिक मस्तिष्क से उत्पन्न हुआ मानते थे । उनके विचार में आत्मा पुद्गल से पृथक् कोई वस्तु न थी । सर्वप्रथम वैज्ञानिक टेंडल ने बटलर पादरी के आत्मा के समर्थन में कहा कि पुद्गल चेतना रहित ज्ञान शून्य जड़ पदार्थ है और आत्मा चेतना युक्त ज्ञानमयी तत्त्व है और क्योंकि यह असम्भव है कि एक ही पदार्थ का स्वभाव जड़ व अचेतन हो और साथ-साथ उसका स्वभाव ज्ञानमयी व चेतन भी हो । 'तत्त्वार्थ सूत्र' में "उपयोगो जीव लक्षणम्" लिखा गया है जिसका अर्थ है कि जानने की क्रिया, यह जीव का लक्षण है । ज्ञान, आत्मा का एक निज गुण है जो कभी भी किसी हालत में आत्मा से विलग नहीं हो सकता । जड़ पदार्थ इन्द्रियों द्वारा ग्रहण भी किये जा सकते हैं और समझे भी जा सकते हैं । मगर आत्मा अति सूक्ष्म वस्तु है । वह इन्द्रियों से ग्राह्य नहीं है । कहा भी है- "नोइंदियग्गेज्भ अमुत्ति भावा ।" भौतिक विज्ञान . के प्रोफेसर बालफोर स्टीवर्ट, सर आलिवर लाज, प्रोफेसर मैसर्स इत्यादि ने केवल आत्मा के अस्तित्व तथा नित्यता को ही स्वीकार नहीं किया बल्कि परलोक के अस्तित्व को भी माना । सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक डॉ० जगदीशचन्द्र बसु के अनुसंधान ने तो यह सब कुछ वनस्पति संसार के लिए भी सिद्ध कर दिया है । एक वैज्ञानिक सिद्धान्त है कि तत्त्व न ही विनाशशील है और न ही उत्पाद्य है । यद्यपि बाह्य रूप में परिवर्तन होता रहता है । इस सिद्धान्त को आत्मा पर लागू करें तो आत्मा न कभी उत्पन्न हुआ है और न कभी इसका विनाश होगा अर्थात् अजर-अमर है, केवल इसके बाह्य अवस्था में परिवर्तन होता रहता है । आत्मा के बाह्य अवस्था के परिवर्तन के कारण का स्पष्टीकरण करने के लिए मनोवैज्ञानिक भी ज्ञात और अज्ञात मन के सिद्धान्त को लेकर इस दिशा में प्रयास कर रहे हैं । डॉ. जगदीशराय जैन For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003842
Book TitleJinvani Special issue on Karmsiddhant Visheshank 1984
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1984
Total Pages364
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size7 MB
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