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________________ २६६ ] [ कर्म-सिद्धान्त जहाँ जीव नहीं है वहाँ वर्षा नहीं पायी जाती। जहां जीव है वहाँ वर्षा अवश्य है। जीवमात्र श्रमजीवी है। कोई पड़े-पड़े खा नहीं सकता और मढ़ जीवों के लिये जब यह सत्य है, तो मनुष्य के लिये यह कितने अधिक अंश में लागू होना चाहिये ? इससे भगवान ने कहा, कर्म को ब्रह्मा ने पैदा किया । ब्रह्मा की उत्पत्ति अक्षर-ब्रह्मा से हुई, इसलिये यह समझना चाहिये कि यज्ञ मात्र में, सेवा मात्र में अक्षर ब्रह्मा, परमेश्वर, विराजता है । ऐसी इस प्रणाली का जो मनुष्य अनुसरण नहीं करता, वह पापी है और व्यर्थ जीता है। यह कह सकते हैं कि जो मनुष्य आन्तरिक शान्ति भोगता है और संतुष्ट रहता है, उसे कोई कर्त्तव्य नहीं है, उसे कर्म करने से कोई फायदा नहीं, न करने से कोई हानि नहीं है। किसी के संबंध में कोई स्वार्थ उसे न होने पर भी यज्ञ कार्य को वह छोड़ नहीं सकता। इससे तू तो कर्त्तव्य-कर्म नित्य करता रह, पर उसमें राग-द्वेष न रख, उसमें आसक्ति न रख । जो अनासक्तिपूर्वक कर्म का आचरण करता है, वह ईश्वर साक्षात्कार करता है। फिर जनक-जैसे निस्पृही राजा भी कर्म करते-करते सिद्धि को प्राप्त हुए, क्योंकि वे लोकहित के लिये कर्म करते थे । तो तू कैसे इससे विपरीत बर्ताव कर सकता है ? नियम ही यह है कि जैसा अच्छे और बड़े माने जाने वाले मनुष्य आचरण करते हैं उनका अनुकरण साधारण लोग करते हैं। मुझे देख । मुझे काम करके क्या स्वार्थ साधना था ? पर मैं चौबीसों घंटा बिना थके, कर्म करता ही रहता हूँ और इससे लोग भी उसके अनुसार अल्पाधिक परिमाण में बरतते हैं। पर यदि मैं आलस्य कर जाऊँ तो जगत का क्या हो ? तू समझ सकता है कि सूर्य, चंद्र, तारे इत्यादि स्थिर हो जायें और इन सबको गति देने वाला, नियम में रखने वाला तो मैं ही ठहरा। किन्तु लोगों में और मुझ में इतना फरक जरूर है कि मुझे आसक्ति नहीं है, और लोग आसक्त हैं, वे स्वार्थ में पड़े भागते रहते हैं। यदि मुझ जैसा बुद्धिमान कर्म छोड़े तो लोग भी वही करेंगे और बुद्धि भ्रष्ट हो जायेंगे। मुझे तो आसक्ति रहित होकर कर्त्तव्य करना चाहिये, जिससे लोग कर्म-भ्रष्ट न हों और धीरेधीरे अनासक्त होना सीखें। मनुष्य अपने में मौजूद स्वाभाविक गुणों के वश होकर काम तो करता ही रहेगा। जो मूर्ख होता है, वही मानता है कि "मैं करता हूँ" । सांस लेना, यह जीवमात्र की प्रकृति है, स्वभाव है । अाँख पर किसी मक्खी आदि के बैठते ही तुरंत मनुष्य स्वभावतः ही पलकें हिलाता है। उस समय नहीं कहता कि मैं सांस लेता हूँ, मैं पलक हिलाता हूँ। इस तरह जितने कर्म किये जायें, सब स्वाभाविक रीति से गुण के अनुसार क्यों न किये जायें ? उनके लिये अहंकार क्या ? और यों ममत्वरहित सहज कर्म करने का सुवर्ण मार्ग है, सब कर्म मुझे अर्पण करना और ममत्व हटाकर मेरे निमित्त करना। ऐसा करते-करते जब मनुष्य में से अहंकार वृत्ति का, स्वार्थ का नाश हो जाता है, तब उसके सारे कर्म स्वाभाविक और निर्दोष हो जाते हैं। वह बहुत जंजाल में से छूट जाता है। उसके लिये फिर कर्म-बंधन जैसा कुछ नहीं हैं और जहाँ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003842
Book TitleJinvani Special issue on Karmsiddhant Visheshank 1984
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1984
Total Pages364
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size7 MB
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