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________________ २६० ] [ कर्म सिद्धान्त भगवान ने भी यही कहा है कि कर्मों में मेरी कुछ भी आसक्ति नहीं है, इसलिए मुझे कर्म की बाधा नहीं होती और जो इस तत्त्व को समझ जाता है वह कर्मपाश से मुक्त हो जाता है।' स्मरण रहे कि यहाँ 'ज्ञान' का अर्थ केवल शाब्दिक ज्ञान या केवल मानसिक क्रिया नहीं है, किन्तु वेदान्त सूत्र के शांकरभाष्य के आरम्भ ही में कहे अनुसार हर समय और प्रत्येक स्थान में उसका अर्थ "पहले मानसिक ज्ञान होने पर और फिर इन्द्रियों पर जय प्राप्त कर लेने पर ब्रह्मीभूत होने की अवस्था या ब्राह्मी स्थिति ही है।" महाभारत में भी जनक ने सुलभा से कहा है कि "ज्ञानेन कुरुते यत्नं, यत्नेन प्राप्यते महत्"२ ज्ञान अर्थात् मानसिक क्रिया रूपी ज्ञान हो जाने पर मनुष्य यत्न करता है, और यत्न के इस मार्ग से ही अन्त में उसे महत्त्व (परमेश्वर) प्राप्त हो जाता है। अध्यात्मशास्त्र इतना ही बतला सकता है कि मोक्ष प्राप्ति के लिए किस मार्ग से और कहाँ जाना चाहिए । इससे अधिक वह और कुछ नहीं बतला सकता । शास्त्र से ये बातें जानकर प्रत्येक मनुष्य को शास्त्रोक्त मार्ग पर स्वयं ही चलना चाहिए और उस मार्ग में जो कांटे या बाधाएं हों, उन्हें निकालकर अपना रास्ता खुद साफ कर लेना चाहिये एवं उसी मार्ग पर चलते हुए स्वयं अपने प्रयत्न से ही अन्त में ध्येयवस्तु की प्राप्ति कर लेनी चाहिए । परन्तु यह प्रयत्न भी पातंजलयोग, अध्यात्मविचार, भक्ति, कर्मफल त्याग इत्यादि अनेक प्रकार से किया जा सकता है और इस कारण मनुष्य बहुधा उलझन में फंस जाता है । इसलिए गीता में पहले निष्काम कर्मयोग का मुख्य मार्ग बतलाया गया है, और उसकी सिद्धि के लिए छठे अध्याय में यम-नियमआसन-प्राणायाम-प्रत्याहार-ध्यान-समाधि रूप अंगभूत साधनों का भी वर्णन किया गया है तथा सातवें अध्याय से आगे यह बतलाया है कि कर्मयोग का आचरण करते रहने से ही परमेश्वर का ज्ञान अध्यात्म विचार द्वारा अथवा (इससे भी सुलभ रीति से) भक्ति मार्ग द्वारा हो जाता है । 3 । कर्मबंध से छुटकारा पाने के लिए कर्म छोड़ देना कोई उचित मार्ग नहीं है किन्तु ब्रह्मात्मैक्य ज्ञान से बुद्धि को शुद्ध रखकर परमेश्वर के समान आचरण करते रहने से ही अन्त में मोक्ष मिलता है । कर्म को छोड़ देना भ्रम है, क्योंकि कर्म किसी से छूट नहीं सकता-इत्यादि बातें यद्यपि अब निर्विवाद सिद्ध हो गई हैं, तथापि यह पहला प्रश्न फिर भी उठता है, कि इस मार्ग में सफलता पाने के लिए आवश्यक ज्ञान प्राप्ति का जो प्रयत्न करना पड़ता है, वह मनुष्य के वश की बात है ? अथवा नाम रूप कर्मात्मक प्रकृति जिधर खींचे, उधर ही उसे चले जाना चाहिए ? गीता में भगवान कहते हैं कि "प्रकृति यान्ति भूतानि निग्रहः १-गीता ४.१४ २-शांडिल्य सूत्र ३२०.३० ३-गीता १८.५६ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003842
Book TitleJinvani Special issue on Karmsiddhant Visheshank 1984
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1984
Total Pages364
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size7 MB
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