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________________ २४० ] [ कर्म-विमर्श पांव में सूई लग जाने पर कोई उसे निकाल कर फेंक दे तो आमतौर पर कोई उसे गलत नहीं कहता। परन्तु जब सूई फेंकने वाला बाद में सीने के और दूसरे काम के लिये नई सूई ढूढ़े और उसके न मिलने पर अधीर होकर दु ख का अनुभव करे तो समझदार आदमी उसे जरूर कहेगा कि तूने भूल की । पाँव में से सूई निकालना ठीक था, क्योंकि वह उसकी योग्य जगह नहीं थी, परन्तु यदि उसके बिना जीवन चलता ही न हो तो उसे फेंक देने में जरूर भूल है । ठीक तरह से उपयोग करने के लिये योग्य रीति से उसका संग्रह करना ही पांव में से सूई निकालने का सच्चा अर्थ है। जो न्याय सूई के लिये है, वही न्याय सामूहिक कर्म के लिये भी है। केवल वैयक्तिक दृष्टि से जीवन जीना सामूहिक जीवन की दृष्टि में सूई भोंकने के बराबर है। इस सूई को निकाल कर उसका ठीक तरह से उपयोग करने का मतलब है सामूहिक जीवन की जिम्मेदारी को बुद्धि पूर्वक स्वीकार करके जीवन बिताना । ऐसा जीवन ही व्यक्ति की जीवन्मुक्ति है । जैसे-जैसे हर व्यक्ति अपनी वासना-शुद्धि द्वारा सामूहिक जीवन का मैल कम करता जाता है, वैसे-वैसे सामूहिक जीवन दुःख-मुक्ति का विशेष अनुभव करता है । इस प्रकार विचार करने पर कर्म ही धर्म बन जाता है । अमुक फल का अर्थ है रस के साथ छिलका भी। छिलका नहीं हो तो रस कैसे टिक सकता है ? और रस रहित छिलका भी फल नहीं है । उसी तरह धर्म तो कर्म का रस है । और कर्म सिर्फ धर्म की छाल है। दोनों का ठीक तरह से संमिश्रण हो, तभी वे जीवन-फल प्रकट कर सकते हैं। कर्म के आलंबन के बिना वैयक्तिक तथा सामहिक जीवन की शुद्धि रूप धर्म रहेगा ही कहाँ ? और ऐसी शुद्धि न हो तो क्या उस कर्म की छाल से ज्यादा कीमत मानी जायेगी ? कर्म प्रवृत्तियाँ अनेक तरह की हैं । परन्तु उनका मूल चित्त में है। किसी समय योगियों ने विचार किया कि जब तक चित्त है, तब तक विकल्प उठते ही रहेंगे और विकल्पों के उठने पर शान्ति का अनुभव नहीं हो सकता । इसलिये 'मूले कुठारः' के न्याय को मानकर वे चित्त का विलय करने की अोर ही झुके । और अनेकों ने यह मान लिया कि चित्त विलय ही मुक्ति है, और वही परम साध्य हैं । मानवता के विकास का विचार एक ओर रह गया। यह भी बंधन रूप माने जाने वाले कर्म को छोड़ने के विचार की तरह भूल ही थी। इस विचार में दूसरे अनुभवियों ने सुधार किया कि चित्त विलय मुक्ति नहीं है, परन्तु चित्त शुद्धि ही मुक्ति है। चित्त शुद्धि ही शान्ति का एक मात्र मार्ग होने से यह मुक्ति अवश्य है, परन्तु सिर्फ वैयक्तिक चित्त की शुद्धि में पूर्ण मुक्ति मान लेने का विचार अधूरा है । सामूहिक चित्त की शुद्धि को बढ़ाते जाना ही वैयक्तिक चित्त शुद्धि का आदश होना चाहिये, और यह हो तो किसी दूसरे स्थान में या लोक में मुक्ति धाम मानने की या उसकी कल्पना करने की बिल्कुल जरूरत नहीं है। ऐसा धाम तो सामूहिक चित्त शुद्धि में अपनी शुद्धि का हिस्सा मिलाने में ही है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003842
Book TitleJinvani Special issue on Karmsiddhant Visheshank 1984
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1984
Total Pages364
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size7 MB
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