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________________ अन्तर्मन की ग्रंथियाँ खोलें ! १७ सूर्य स्वयं प्रकाशमान होता है, उसे अपने प्रकाश के लिये किसी दूसरे की अपेक्षा नहीं होती । फिर जिस आत्मतत्त्व को सूर्य से भी अधिक तेजस्वी माना गया है, आखिर उसी की चेतना इतनी चंचल और अस्थिर क्यों बन जाती है ? निज स्वरूप को विस्मृत कर देने के कारण ही चेतना शक्ति संज्ञाहीनता से दुर्बल हो जाती है । उसका कितना अमित सामर्थ्य है-उस को भी वह भूल जाती है । वह क्यों भूल जाती है ? कारण, वह अपने मूल से उखड़ कर अपनी सीमाओं और मर्यादानों से बाहर भटक जाती है और उन तत्वों के वशीभूत हो जाती है, जिन तत्त्वों पर उसे शासन करना चाहिये । यह परतन्त्रता आत्मविस्मृति से अधिकाधिक जटिल होती चली जाती है । जितनी अधिक परतंत्रता, उतनी ही अधिक ग्रंथियाँ मन को जकड़ती रहती हैं। जितनी अधिक ग्रंथियाँ, उतना ही मन बंधनग्रस्त होता चला जाता है । इसलिए दृष्टि का विकास करना है और चेतना को सुलझाना है तो अन्तर्मन की सारी ग्रंथियाँ खोल लीजिये । Jain Educationa International प्राचार्य श्री नानेश विषमता की प्रतीक स्वरूप विभिन्न ग्रंथियाँ मानव-मन में मजबूती से बंध जाती हैं और विचारों के सहज प्रवाह को जकड़ लेती हैं । जब तक इन ग्रंथियों को खोल न सकें, तब तक आन्तरिक विषमता समाप्त नहीं होती और आन्तरिक विषमता रहेगी तो बाह्य विषमता के नानाविध रूप फूलतेफलते रहेंगे एवं दु:ख-द्वन्द्वों की ज्वाला जलती रहेगी । व्यक्ति-व्यक्ति की इन आन्तरिक ग्रंथियों को खोले बिना चाहे हजार-हजार प्रयत्न किये जायं या आन्दोलन चलाए जाएं, बाहर की राजनैतिक, आर्थिक अथवा अन्य समस्याएं सन्तोषजनक रीति से सुलझाई नहीं जा सकेंगी। मन सुलझ जाय तो फिर वाणी और कर्म के सुलभ जाने में अधिक विलम्ब नहीं लगेगा । *श्री शान्तिचन्द्र मेहता द्वारा सम्पादित प्रवचन | For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003842
Book TitleJinvani Special issue on Karmsiddhant Visheshank 1984
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1984
Total Pages364
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size7 MB
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