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________________ जै० सा० ३०-पूर्व पीठिका लेते थे। उपनिषद् पूर्णतया दार्शनिक ग्रन्थ हैं और ब्राह्मण ग्रन्थों तथा आरण्यकोंके पश्चात् उनकी रचना हुई है। यों तो उनकी संख्या दो सौ से भी अधिक है किन्तु सभी उतने प्राचीन नहीं हैं। एतरेय, कौषीतकी, तैत्तिरीय, वृहदारण्यक, छान्दोग्य और केन, ये उपनिषत् निश्चितरूपसे प्राचीन माने जाते हैं। इनमें भी छान्दोग्य और वृहदारण्यक विशेष प्राचीन हैं। ___ दूसरे नम्बरमें आते हैं-कठ, श्वेताश्वतर, महानारायण, ईश, मुण्डक और प्रश्न। शंकराचार्यने ब्रह्मसूत्रकी टीकामें इन्हीं बारह उपनिषदोंको प्रमाण रूपसे उपस्थित किया है। इनमें सांख्ययोगके सिद्धान्त तथा अद्वतवादी दृष्टिकोणका तानाबाना है । मैत्रायणीय उपनिषद् और माण्डूक्य उपनिषद् बुद्धकालके पश्चात् के हैं। शंकराचार्यने इनको प्रमाण रूपसे उद्धृत नहीं किया। फिर भी इन दोनों को गणना उक्त बारह उपनिषदों के साथ की जाती है और इन सब उपनिषदोंको वैदिक उपनिषद् कहा जाता है। ___उपनिषदोंको वेदान्त कहा जाता है। पहले वेदान्तका मतलब केवल उपनिषद् था। पीछेसे उपनिषदोंके दर्शनको वेदान्त कहा जाने लगा। उपनिषदोंमें जो तत्त्व ज्ञान भरा हुआ है वह सरल नहीं है। अतः उसका शिक्षण अन्तमें दिये जानेसे उपनिषद्को वेदान्त कहना उचित है। दूसरे, उत्तरकालीन दार्शनिकोंने उनमें वेदका अन्तिम लक्ष्य पाया इसलिये भी इन्हें वेदान्त कहना उचित है। तीसरे वैदिक कालके अन्तमें उनकी उत्पत्ति हुई इसलिये भी उन्हें वेदान्त कहना उचित है और चौथे धार्मिक कर्तव्य और पवित्र कार्यके रूपमें वैदिक क्रियाकाण्डकी मान्यता का अन्त कर दिया, इसलिये भी उन्हें वेदान्त कहना उचित है (हि. इं० लि० विन्ट०, जि० ५,पृ० २३४)। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003837
Book TitleJain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages778
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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