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________________ श्रुतपरिचय ७०५ और वे वर्तमान उत्तराध्ययनके अध्ययनोंके नामोंसे प्रायः मिलते हैं । डा. विन्टरनीट्स' का कहना है कि 'वर्तमान उत्तराध्ययन अनेक प्रकरणों का एक संकलन है और वे प्रकरण विभिन्न समयोंमें रचे गये थे। उसका प्राचीनतम भाग वे मूल्यवान पद्य हैं जो प्राचीन भारत की श्रमणकाव्य शैलीसे सम्बद्ध हैं और जिनके सदृश पद्य अंशतः बौद्ध साहित्यमें भी पाये जाते हैं । ये पद्य हमें बलात् सुत्तनिपातके पद्योंका स्मरण करादेते हैं।' 'विनय नामक प्रथम अध्ययनमें 'बुद्ध' शब्द आता है । यथा 'कठोर अथवा मिष्ट वचनसे मुझे बुद्ध जो शिक्षा देते हैं, अपना लाभ मानकर उसे प्रयलपूर्वक सुनना चाहिये ॥' इस १-हि. ई. लि., भा. २ पृ० ४६६-६७ । २–यहाँ उदाहरणके लिये उत्तराध्ययनसे तथा बौद्ध धम्मपदसे दो उद्धरण दिये जाते हैं । मासे मासे उ जो बालो कुसग्गेणं तु भुंजए। ण सो सुक्खायधम्मस्स कलं अग्घइ सोलसिं ॥ ४४ ।। -उत्त० अ०६, । मासे मासे कुसग्गेन वालो भुंजेथ भोजनं । न सो संखतधम्मानं कलं अग्घति सोलसिं ॥ ११ ॥-धम्म० बालग्य जहा पोम्म जले जायं नोवलिप्पइ वारिणा । एवं अलितं कामेहि तं वयं बूम माहणं ।। २७ ।। उत्त०, अ० २५ । वारि पोक्खरपत्ते व पारग्गेरिव सासयो। यो न लिम्पति कामेसु तमहं बूमि ब्राह्मणं ॥ १६ ॥ -धम्म०, ब्राह्मणवग्ग । ३-जं में बुद्धाणुसासंति सीएण फरुसेण वा । मम लाभु त्ति पेहाए पयो तं पडिस्सुणे ॥ २७ ॥ ४५ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003837
Book TitleJain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages778
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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