SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 690
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६६५ श्रुतपरिचय दस अध्ययनोंके जो नाम दिये हैं, प्रस्तुत अङ्गोंके नामोंसे उनका मेल नहीं खाता। किन्तु दिगम्बर ग्रन्थोंमें निर्दिष्ट नामोंसे मेल खाता है । स्थानांगमें ८ वें अङ्गके दस अध्ययनोंके नाम इस प्रकार बतलाये हैं-णमि, मातंग, सोमिल, रामगुत्त, सुदर्शन, जमाली, भगाली, किंकम, पल्लतेतिय, अबडपुत्त । तत्वार्थ वार्तिकमें निर्दिष्ट नामोंसे ये नाम मिलते है। जो कहीं अन्तर है वह लेखकोंकी कलाका परिणाम जान पड़ता है। टीकाकार' अभय. देव इसे वाचनान्तर की अपेक्षा स्वीकार करते हैं। अतः परम्परामें और प्रस्तुत आठवे अङ्गके नामसे उपलब्ध ग्रन्थमें एक दम विरोध है । टीकाकार अभयदेव इस विरोध पर प्रकाश डालनेमें अपने को असमर्थ पाते हैं । अस्तु विषयके अनुसार आठ वर्गोंको तीन स्तरों में विभाजित किया जा सकता है। १ एक से ५ तकके वर्ग-इनमें कृष्ण वासुदेवसे सम्बन्धित व्यक्तियों की कथाएँ है। ६ठा और सातवाँ वगइसमें भगवान महाबीरके शिष्योंकी कथाएँ हैं। ८ वाँ १-'एतानिच 'नमि' इत्यादिकानि अन्तकृत्साधुनामानि अन्तकृद्दशांग प्रथमवर्गेऽध्ययनसंग्रहे नोपलभ्यन्ते । ततो वाचनान्तरापेक्षाणि इमानीति संभावयामः ।' --स्था० टी., सू. ७०५४ । २-'नवरं दस अज्झयण त्ति प्रथमवर्गापेक्षयैव घटन्ते, नन्द्यां तथैव व्याख्यातत्वात् । यच्चेह पठ्यते 'सत्त वगा' ति तत्प्रथमवर्गादन्यवर्गापेक्षया, यतोऽत्र सर्वेऽप्यष्टवर्गाः। नन्द्यामपि तथा पठितत्वात्, तवृत्तिश्चयं 'अवग्ग' ति । अत्र वर्गः समूहः स चान्तकृतानामध्ययनानां वा, सर्वाणि चैकवर्गगतानि युगपदुद्दिश्यन्ते, ततो भणितं 'अट्ठ उद्देसण काला' इत्यादि । इह च दश उद्देशनकाला अधीयन्ते इति नास्याभिप्रायमवगच्छामः ।'-सम० टी०, सू. १४३ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003837
Book TitleJain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages778
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy