SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 680
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ८६० श्र तपरिचय ६५५ ५.७५ ५७६००० ५५६००० ८१२ ११५२००० ११७००० २३०४००० २३२८००० १६२ ४६०८.०० ६२४४८०० १३०० ६२१६००० ६३१६००० १३१ १८४३२००० १८४००००० . इस तालिकासे प्रकट होता है कि जब बागम ग्रन्थों के अनुसार द्वादशांगका प्रमाण उत्तरोत्तर लगभग दूना बतलाया है तब वर्तमान श्वे० आगमोंका प्रमाण ६ संख्याके बाद एक दम अल्प हो गया है। ____ समवायांगके सम्बन्धमें प्रो० विन्टरनीट्सने लिखा है'इस बातके प्रमाण हैं कि या तो वर्तमान समवायांगकी रचना बादमें की गई है या उसमें कुछ भाग बादके रचे हुए हैं। उदाहरण के लिये, नम्बर अट्ठारहमें अठारह प्रकारकी ब्राह्मी लिपि बतलाई है, नम्बर छत्तीसमें उत्तराध्ययनके छत्तीस अध्ययनोंका निर्देश है, तथा नन्दी जैसे अर्वाचीन ग्रन्थका उल्लेख है । इसके सिवाय अंगोंका जो विस्तृत परिमाण उसमें बतलाया गया है, वर्तमान परिमाणके साथ उसका कोई मेल नहीं है।' (हि. इ० लि०, जि० २, पृ० ४४२ )। ५-व्याख्या प्रज्ञप्ति-'जीव है या नहीं इत्यादि साठ हजार प्रश्नों का समाधान करता है ( त• वा०, पृ० ७३ । षटखं०, पु० १, पृ० १०१)। साठ हजार प्रश्नोंके उत्तरोंका तथा छियानवे हजार छिन्न छेदों से ज्ञापनीय शुभ और अशुभ का वर्णन करता है ( क० पा०, भा० १, पृ० १२५ ) । अनेक सुरेन्द्र नरेन्द्र राजर्षियों के द्वारा पूँछे गये संशयों का तथा भगवान के द्वारा दिये Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003837
Book TitleJain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages778
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy