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________________ ५८७ श्रुतपरिचय के अन्तर्गत पूर्वोसे लिये गये हैं, ऐसा भी प्रतीत होता है । इसपर विशेष प्रकाश आगे डाला जायेगा। अतः उस विशाल दृष्टिवाद का सर्वथा लोप नहीं हुआ और पूर्वोके विशकलित अंशोंका ज्ञान परिपाटी क्रमसे बहुत वर्षों तक प्रवर्तित रहा, इतना स्पष्ट प्रतीत होता है। अब हम दिगम्बर साहित्यसे दृष्टिवाद अंग का जो परिचय मिलता है उसे यहां देते हैं। दिगम्बर साहित्यमें दृष्टिवादका परिचय अकलंक देवने अपने तत्त्वार्थवार्तिकमें कराया है। लिखा ' है-दृष्टिवादमें तीन सौ त्रेसठ दृष्टियोंका प्ररूपण तथा खण्डन किया गया है। इन तीन सौ त्रेसठ दृष्टियों अथवा मतोंमेंसे एक सौ अस्सी दृष्टियाँ क्रियावादी हैं । चौरासी दृष्टियाँ अक्रियावादी है, सड़सठ दृष्टियाँ अज्ञानपरक हैं और बत्तीस दृष्टियां वैनयिक हैं। ___'द्वादशमङ्ग दृष्टिवाद इति । कौत्कल - काणे विद्धि-कौशिकहरिस्मश्रु-मांछपिक-रोमश-हारीत-मुण्डा-श्वलायनादीनां क्रियांवाददृष्टिनामशीतिशतम्, मरीचिकुमार-कपिलोलूक-गार्ग्य-व्याघ्रभूतिवाद्वलि-माठर-मौद्गल्यायनादीनामक्रियावाददृष्टिनां चतुरशीतिः, साकल्य-वल्कल--कुथिमि-सात्यमुग्री-नारायण-कठ-माध्यन्दिन-मौद - पैप्पलाद-बादण्यणाम्बष्ठिकृदौविकायन-वसु-जौमिन्यादीनामज्ञानकुदृष्टिनां-सप्त षष्ठिः, वशिष्ठ-पाराशर-जतुकणि-वाल्मीकि-रौमहर्षिणि-सत्यदत्त-व्यासैलापुत्रौपमन्यवैन्द्रदत्तायस्थणादीनां वैनयिकदृष्टिनां द्वात्रिंशत्,एषां दृष्टिशतानां त्रयाणां त्रिषष्ठयुत्तराणां प्ररूपणं निग्रहश्च दृष्टिवादे क्रियते ।'-त० वा० श्र०१--२०सू० । “दिद्विवादो णाम अंग बारसमं। तस्य दृष्टिवादस्य स्वरूपं निरूप्यते ।......एषां दृष्टिं शतानां त्रयाणां त्रिषष्टयुत्तराणां प्ररूपणं निग्रहश्च दृष्टिवादे क्रियते ।"-षटलं-,-पु०१, पृ.१०७ १०८। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003837
Book TitleJain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages778
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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