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________________ प्राचीन स्थितिका अन्वेषण ३३ विद्वानोंके मतानुसार अथर्ववेद में प्राथमिक धार्मिक विचारोंका रूप रक्षित है, जो अन्य वैदिक ग्रन्थोंमें नहीं है । । ऐसी संभावना की जाती है कि पुरोहितके लिये प्राचीन भारतीय नाम अथर्वन था । अतः अथर्ववेदका मतलब होता है पुरोहितोंका वेद या पुरोहितोंके लिये वेद । अथर्वका मतलब जादूगरीसे भी है । प्रारम्भ में पुरोहित और जादूगर एक ही होते थे । किन्तु पीछे इनमें विभेद हो गया। ब्राह्मण स्मृतियोंमें शत्रुओं के विरुद्ध अर्थववेदी भूत-प्रेतविद्याका प्रयोग करनेकी स्पष्ट आज्ञा दी गई है ( मनु० ११-३३ ) । और वैदिक विधि के जिन ग्रन्थों में यज्ञोंका वर्णन है उनमें भूत-प्रेतविद्या तथा जादू-टोनोंका भी वर्णन है, जिनके द्वारा पुरोहित बाधाओं को जड़मूल से उखाड़ सकते थे । अथर्ववेद में इन सबकी बहुतायत है और इस दृष्टिसे उसका महत्त्व विशेष है। अथर्ववेद में जादू-टोनेसम्बन्धी ऋचाएँ बहुत बड़ी संख्या में वर्तमान हैं। इनमेंसे कुछ शत्रुओंके विरुद्ध प्रयोग किये जानेवाली भूत-प्रेतविद्यासे सम्बद्ध हैं और कुछ आशीर्वादात्मक हैं। ये सब राजाओंके कामकी वस्तुएँ थीं। प्रत्येक राजाको एक पुरोहित रखने की आज्ञा थी और वह पुरोहित जादूगरीका जानकार होता था । उससे वह राजाकी रक्षा करता था । इसलिये अथर्ववेद राजन्यवर्गसे सम्बद्ध था ( हि० इं० लि०, विन्ट० पृ० १४६ ) । ब्राह्मणवर्ग आरम्भ से ही एक प्रयोगशील वर्ग रहा है । वह हमेशा राजाओं तथा अन्य मनुष्योंके हितमें जादू-टोनेका प्रयोग करता आया है । मनुस्मृति ( ११-३३ ) में स्पष्ट कहा है कि ब्राह्मणको बिना किसी हिचकिचाहटके अथर्ववेदका Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003837
Book TitleJain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages778
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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