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________________ श्रुतावतार ५४१ 'पाटलीपुत्रमें संघने ग्यारह अङ्गोंका संकलन करनेके पश्चात् बारहवें दृष्टिवाद अङ्गको प्राप्त करनेके लिए ५०० साधुओंको भद्रबाहुके पास भेजा, जो उस समय नेपाल में थे। उन साधुओंमें स्थूलभद्र भी थे। भद्रबाहुने उस समय 'महाप्राण' नामक व्रत धारण किया था इसलिये वह अपने शिष्योंको पूर्वोकी बहुत थोड़ी वाचना दे पाते थे। तथा पूर्व कठिन भी थे और विस्तृत भी थे। इन कारणोंसे एक स्थूल भद्रके सिवाय शेष सब साधु वहाँसे चले गये। केवल स्थूलभद्र ने दस पूर्वोका अध्ययन किया। किन्तु उसके एक सदोष व्यवहारसे असन्तुष्ट होकर भद्रबाहुने उन्हें चार पूर्वोकी वाचना देनेसे इन्कार कर दिया। जब स्थूलभद्र ने बहुत प्रार्थना की और अपने दोषोंकी क्षमा मांगी तब भद्रबाहु ने उन्हें चार पूर्वोकी केवल सूत्ररूपसे वाचना दी; उनका अर्थ नहीं बतलाया । अतः स्थूलभद्र' सम्पूर्ण श्रुत ज्ञानी नहीं थे। खरतर गच्छकी पट्टावलीमें भी लिखा है कि स्थूलभद्रने दो वस्तु हीन दस पूर्वोको तो सूत्र और अर्थ रूपसे पढ़ा था किन्तु अन्तके चार पूर्वोको अर्थ रूपसे नहीं पढ़ा था। प्राचीन परम्पराके अनुसार भद्रबाहु ही अन्तिम श्रु त केवली थे। पीछेसे स्थूलभद्रको भी श्रुत केवलियोंमें गिना जाने लगा। इस तरह स्थूलभद्रने भद्रवाहुसे जो पूर्वोका ज्ञान प्राप्त किया, वह तो आगे चलकर लुप्त हो गया और शेष ग्यारह अगोंका १. 'समस्तगणि पिटकधारकाः, गणोऽस्यातीति गणी-भावाचार्यः तस्य पिटकमिव रत्नकरण्डकमिव गणिपिटकं-द्वादशांगी, तदपि न देशतः स्थूलभद्रस्येव, किन्तु ? समस्तं-सर्वाक्षरसन्निपातित्वात् तद्धारयन्ति सूत्रतोऽर्थतश्च ये ते तथा ।-कल्प० सुबो०, पृ. १८५। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003837
Book TitleJain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages778
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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