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________________ ... संघ भेद ४०९ देखा । इस तरह प्रथम जिनके साधु हृदयके सरल किन्तु बुद्धिके मन्द होते थे। जितना कहा जाता उतना ही सरलतासे मान लेते थे। आगे विचार नहीं करते थे । यही बात उस समयके गृहस्थोंकी भी थी। अतः उन सबको ऋजु किन्तु जड़ कहा है। ___ मध्यके बाईस तीर्थङ्करोंके अनुयायी शिष्य सरल होनेके साथ साथ बुद्धिमान भी थे। अतः नटके खेल देखनेका निषेध करने पर अपनी बुद्धिसे ही वे समझ जाते थे कि इस प्रकारके सभी विनोद त्याज्य हैं। किन्तु अन्तिम जिन महावीरके शिष्य बुद्धिहीन होनेके साथ साथ कुटिलमति भी थे इसलिये उन्हें वक्रजड़' कहा है। वे यदि नटका खेल देखकर लौटते तो प्रथम तो कहते ही नहीं थे और देरसे लौटनेका कारण पूछने पर तरह तरहके बहाने बना देते थे। इसलिये प्रथम और अन्तिम जिनके साधुओंके लिये 'अचेल' अवश्य करणीय कहा गया था। किन्तु इतना स्पष्ट निर्देश करने पर भी उनकी तथोक्त वक्रजड़ताने 'अचेल' और नाग्न्य जैसे स्पष्ट शब्दोंके अर्थमें भी परिवर्तन करके वस्त्र परिधानकी गुंजाइश ही नयीं निकाली किन्तु आचेलक्य नामक स्थितिकल्पका एक तरहसे सफाया ही कर दिया। भ० महावीरके पश्चात् वस्त्रकी स्थिति पर प्रकाश प्रकृत बिषय पर प्रकाश डालनेके लिये सबसे प्रथम हम १-वंका उ ण साहंती पुट्ठा उ भणंति उगह कंटादी । पाहुणग सद्ध ऊसव गिहिणो वि य वाउलंतेव ।।५३५८॥ 'पश्चिमतीर्थकरसाधवो वक्रत्वेन किमप्पकृत्यं प्रतिसेव्यापि न कथयंति नालोचयन्ति, जडतया च जानन्तोऽजानन्तो वा भूयस्तथैवापराधपदे प्रवर्तन्ते । एवं गृहिणोऽपि वक्रजड़तया साधून व्यामोहयन्ति ।' ____-वृ० कल्प। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003837
Book TitleJain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages778
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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