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________________ जै० सा० इ० -पूर्व पीठिका लाचारी हो गये थे । अथवा पार्श्व के अनुयायी साधुओंको महावीर के अनुयायी शिथिलाचारी मानते थे 1 ४०० और ऐसा होना कोई असंभव नहीं है । इस सम्बन्धमें डा० जेकोबीने ठीक ही लिखा है- 'उत्तराध्ययन सूत्रके केशी- गौतम संवादसे अनुमान किया जाता है कि पार्श्व और महावीर के बीचमें मुनिधर्मी नैतिक अवस्था में पतन हुआ था और यह तभी संभव है जब अन्तके दोनों तीर्थङ्करों के बीच में काफी लंबा अन्तराल रहा हो । और इसका इस साधारण परंपरा से कि पार्श्व के २५० वर्ष बाद महावीरका अवतरण हुआ, पूर्ण रूप से समर्थन होता है ।' ( से० बु० ई० जि० ४५, पृ. १२२-१२३ ) दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदायोंमें पार्श्वस्थ शिथिलाचारी साधुका एक भेद है । भगवती आराधना में कहा है कि पार्श्वस्थ मुनि इन्द्रिय, कषाय और विषयोंसे पराजित होकर चरित्रको तृणके समान समझता है अतः उससे भ्रष्ट हो जाता है । जो मुनि पार्श्वस्थ मुनिकी सेवा करते हैं वे भी पार्श्वस्थ बन जाते हैं। व्यवहारसूत्र में लिखा है-— पार्श्वस्थ मुनि वसतिकारकका निषिद्ध भोजन करता है, वर्जित कुलोंमें जाकर भोजन करता है । आदि १ इंद्रिय कसायगुरुपत्तणेण चरणं तरणं व पस्संतो i गिद्धम्मो हु सवित्ता सेवदि पासत्थसेवा || १३०० ॥ २ सेजायर कुल निस्तिय, ठवणकुल पलोयणा अभिहडे य । पुव्वि पच्छा संथव, निड़ अग्ग पिंड भोइ पासत्थो || २३० || Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003837
Book TitleJain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages778
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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