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________________ १३० जै० सा० इ० पूर्व पीठिका बड़ी जटा छिटकाये नंगे धडंगे ऋषभदेव जी विचरने लगे। सब बनमें अकस्मात् वायुके वेगसे बाँस हिलने लगे। परस्पर बाँसों के रगडनेसे दावानल प्रकट हुआ, देखते-देखते क्षणभरमें वह दावानल सब बनमें फैल गया। उसी अग्निमें ऋषभदेव जीका स्थूल शरीर भस्म हो गया । (भा० पु० स्क० ५, अ० ५.६ )। इस तरह भागवतकारने भी भगवान ऋषभदेवको योगी बतलाया है। यों तो कृष्णको भी योगी माना जाता है किन्तु कृष्णका योग 'योगः कर्मसु कौशलम्' के अनुसार कर्मयोग था और भगवान ऋषभदेवका योग कर्म संन्यासरूप था। जैन धर्ममें कर्मसंन्यासरूप योगकी ही साधनाकी जाती है। ऋषभदेवसे लेकर महावीर पर्यन्त सभी तीर्थङ्कर योगी थे। मौर्यकालसे लेकर आजतककी सभी जैन मूर्तियाँ योगीके रूप में ही प्राप्त ___ योगकी परम्परा अत्यन्त प्राचीन परम्परा है । वैदिक आर्य उससे अपरिचित थे। किन्तु सिन्धु घाटी सभ्यता योगसे अछूती नहीं थी, यह वहाँसे प्राप्त योगीकी मूर्तिसे, जिसे रामप्रसाद चन्दाने ऋषभदेवकी मूर्ति होनेकी संभावना व्यक्तकी थीस्पष्ट है। ___ अतः श्रीमद्भागवत आदि हिन्दू पुराणोंसे भी ऋषभदेवका पूर्व पुरुष होना तथा योगी हाना प्रमाणित होता है और उन्हें ही जैन धर्मका प्रस्थापक भी बतलाया गया है। एक बात और भी उल्लेखनीय है। ___ श्रीमद्भागवत (स्क० ५, अ०४) में ऋषभदेव जीके सौ पत्र बतलाये हैं। उनमें भरत सबसे बड़े थे। उन्हींके नामसे इस खण्डका नाम भारतवर्ष पड़ा । भारतके सिवा कुशवर्त, इलावर्त Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003837
Book TitleJain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages778
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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