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________________ १२. श्री वासुपूज्य स्तवनम् आत्मज्ञान की कुंजी: प्रचारक-भगवन् ! आपने जो भी फरमाया है वह सभी यथार्थ है, पर हमारे गुरुजनों को हम कैसे छोड़ें ? राजे-महाराजे भी जिनके चरण छूते हैं, लाखों लोग जिनके अनुयायी हैं और उनकी कृपा से ही हमारी प्रवक्ता के रूप में सर्वत्र प्रसिद्धि है, फलतः हम सुख पूर्वक रोटी पा रहे हैं। तक भला ! आपही बताइये कि हम क्या करें ? १. सन्त आनन्दघनजी–अहो ! अपने ही पूज्य इष्टदेव श्रो वासुपूज्य भगवान जिस हेतु से सम्पूर्ण ज्ञानानन्द और बहुत से नामों से रूपान्तरित विश्वव्यापी प्रसिद्धि पाकर त्रिभुवन स्वामी बने, उनकी उस जिन-वीतराग दशा को नित्य पूजते हुये भी परिणामतः यह वासु अर्थात् जीवात्मा, स्वयं मिथ्यान्धकार से ग्रसित होने पर भी केवल पेट भराई के लिये ही ज्ञानी के रूप में अपनी अत्यधिक प्रसिद्धि चाहता हुआ सतत प्रयत्नशील है ; इसीलिये यह कर्म तथा कर्मफल का कामी, अपनी देखने-जानने की सारी चैतन्य-शक्ति को व्यर्थ ही यत्र-तत्र लगा रहा है ; और फिर भी दिल का दीया सुलगाने को आशा रखता है-यह कितने आश्चर्य की बात है ? प्यारे ! जग-विष्टा तुल्य रोटी और शुकरी विष्टा तुल्य लोकप्रतिष्ठा के पीछे तो द्रव्य, भाव और नोकर्म की ही कमाई होगी, एवं इसके फल-स्वरूप आपको अन्ताह-रूप शाता तथा बाह्यान्तर्दाह-रूप अशाता-की अग्नि की ही लपटें लगेंगी, पर दिल का दीया और तज्जन्य आत्मानन्द का अनुभव कदापि नहीं हो सकेगा। २. दिल के दीये का सुलगना तो तभी सम्भव है, जबकि तत्त्वनिर्णय से निश्चित होकर अपनी चेतना देखने-जानने की सारी चैतन्यताकत केवल स्व-तत्त्व ग्रहण के ही व्यापार में अनवरत लगी रहे। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003815
Book TitleAnandghan Chovisi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSahajanand Maharaj, Bhanvarlal Nahta
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1989
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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