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________________ आत्म निंदा २१ जन्म, आर्य देश, आर्य कुल, श्रावक नाम धरानेवाला शरीर, जिन प्रभु का धर्म, अनेक पुण्य के बंध से तो प्राप्त हुआ और ऐसे मनुष्य जन्म को पाकर तूने मूर्ख ब्राह्मण के जैसे चिंतामणिरत्न रूप धर्म को खो दिया, अब तेरी आत्मा की गरज किस तरह पूरो हो ? रे चेतन ! तू कहता है मैं, परंतु तू कौन ? विष्टा ( नर्क ) में पैदा होकर धीरे धीरे वृद्धि को प्राप्त हुआ है । तथा ईर्षा सहित मान दशा वाले बाहुबलजी थे उनको तो ब्राह्मी सुन्दरी सरीखे समझाने वाले मिल गये थे जब समझे किन्तु हे चेतन ! ऐसा मान रखने से तेरा क्या हाल होगा ? अरे चेतन ! तू विचार कर ! भरत महाराज को कितनी राज-ऋद्धि एवं सौभाग्य था, वे भीए क वक्त आत्म-मावना लाकर विचारने लगे कि अरे ! मेरे इस महाराज्य को धिकार हो, पाट ( सिंहासन ) को धिक्कार हो, चक्रवर्ती पदवी को धिक्कार हो, अरे ! विषय सुख को धिक्कार हो, जो महाशय व्रत पालते हैं उनको धन्य है, उस धर्म को धन्य है, जो दान देवे वह धन्य है, जो शीयल पाले वह धन्य है, जो तपस्या करता है वह धन्य है, जो भली भावना भाता है वह धन्य है। ऐसी भावना भाने से भरतादिक को केवलज्ञान, केवलदर्शन हुआ। अरे जीव ! तूं उनकी बराबरी मत कर, क्योंकि वे तो सठशलाका पुरुष चरम शरीरवाले चौथे आरे के जीव थे और तू तो पांचवें काल ( पंचम आरे ) का जीव भरतक्षेत्र का कीड़ा है, कितना फर्क ? अरे चेतन ! कर्म जड़ वस्तु और तू जोव वस्तु है, विचार कर कि जीव-जीव से तो हमेशा परिचय करता है, परंतु तू अजीव से क्यों करता है ? क्योंकि तू Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003812
Book TitleAtma Bodh Sara Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKavindrasagar
PublisherKavindrasagar
Publication Year1975
Total Pages114
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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