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________________ ( १०२ ) द्वेषभाव क्रोधादि भाव न कर क्षमादि भाव से शान्त एवं स्थिर ही रहते थे , उसी प्रकार इन्द्रादि, राजादि के अनुकूल उपसर्ग बन्दन भक्ति आदि करने वालों पर खुश भी न होकर शान्त बने रहते थे, अर्थात् सदा वीतराग भाव-दशा में रहते थे। ऐसे वीतराग सर्वज्ञ देव भगवान महावीर की वाणी से अपने मुमुक्षु सहज शुद्धात्म बोध प्राप्त कर उस पर अपनी श्रद्धा को दृढ़ न कर सके तथा तीन प्रकार से समता भाव जैसे पराश्रित समता भाव-आत्मवत् सर्व जीवेषु (२) शरीराश्रित समताभाव पौद्गलिक इन्द्रियजन्य सुखाभास में खुश न होना, मन्द परिणाम रखना तथा शारीरिक, मानसिक कष्टों में चिन्तित होकर घबड़ाना नही शान्त रहने का प्रयत्न । ( ३ ) आत्माश्रित समताभाव अन्तरात्मा परमात्मा एक से हैं, क्यों कि प्रत्येक जीव के असंख्य प्रदेश आत्म शक्ति के फैलाव का क्षेत्र अर्थात चींटी के शरीर में उतना सा क्षेत्र और हाथी के शरीर में हाथी जितने क्षेत्र में चेतना व्याप्त रहती है, उसे आत्म प्रदेश की संज्ञादी गई हैं जो रबड़ की तरह एलास्टिक हैं वह तो शरीर के अपेक्षा से चेतना की बात है, लेकिन आत्मज्ञान की अपेक्षा से केवलज्ञान लोकालोक तक फैल सकता है। अस्तु चेतना का फैलाव असंख्य प्रदेश कहा गयाहै उसमें से आठ रुचक प्रदेश में अर्थात उन प्रदेशों में जो केन्द्र स्थान, मध्यस्थान में है उनमें कभी कर्म नहीं लगते वह कर्म रहित हिस्सा सहज है, शुद्ध है नेगम नय से सिद्ध के समान पवित्र हैं। उस अपेक्षा से आत्माअन्तरात्मा परमात्मा तुल्य है अतः मुमुक्षु को अपने अन्तर सहज Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003812
Book TitleAtma Bodh Sara Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKavindrasagar
PublisherKavindrasagar
Publication Year1975
Total Pages114
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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