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________________ सो य संघाडो अचिरकालस्स उवलद्धी करेत्ता मागतो । साहति च वायसारणं जहा- 'जगवएसु वायस पिंडयाओ मुक्कमारणीमो अच्छंति, उट्ठह, वच्चामो त्ति । ततो ते संपहारेंति-किह गंतव्वं?' ति । जइ प्रापुच्छामो नत्थि गमणं' एवं परिगणेत्ता कायंजले सद्दावेत्ता एवं वयासो- 'भागिणेज्जा! वच्चामो।' ततो तेहिं भणियं-'किं गम्मइ?' ततो ते भरणंति-'न सक्केमो पइदिवसं तुम्हं अहोभागं पासित्ता अणुट्ठिए चेव सूरे ।' एवं भरिणत्ता गया।* अभ्यास 1. शब्दार्थ : दुवालस = बारह मेलयं = झुण्ड वड्डो = भारी छ.हभारो = भुखमरी कहिय = कहाँ भायरणेज्जा= भनेज संपहारेत्ता = विचारकर वत्त = व्यतीत होने पर संघाडग्रो= मुखिया सद्दावेत्ता = बुलाकर वयासी = कहा पासित्ता = देखकर वस्तुनिष्ठ प्रश्न : का क्रमांक कोष्ठक में लिखिए : 1. अकाल पड़ने पर कौओं की मदद की(क) गिद्धों ने (ख) आदमियों ने (ग) कोयल ने (घ) भानजे कापंजल ने [ ] * वसुदेवहिण्डी (सं०-मुनि पुण्यविजय), भावनगर, 1930,पृ0 33 प्राकृत गद्य-सोपान Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003807
Book TitlePrakrit Gadya Sopan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1983
Total Pages214
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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