SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 205
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ राजा - हे मित्र ! इस प्रकार मत झगड़ो (कहो) । यह (विचक्षणा) कवित्व । में स्थापित है। विदूषक - (क्रोध सहित ) तब सीधे ही क्यों नहीं कह दिया जाता है कि हमारी (यह) दासी हरिवृद्ध, नन्दिवृद्ध, पोट्टिश, हाल आदि (प्राकृत कवियों) के समाने भी श्रेष्ठ कवि है। 000 पाठ ३२ : प्राकृत अभिलेख १. जीव-दया = मांस-भक्षण का निषेध 1. यह धर्म लिपि देवताओं के प्रिय, प्रियदर्शी राजा (अशोक) द्वारा लिखायी गयी। 2. यहाँ पर कोई जीव मारकर हवन न किया जाय । 3. और न समाज (दोषपूर्ण आयोजन) किया जाय । 4. क्योंकि बहुत दोष समाज में देवानांप्रिय, प्रियदर्शी राजा देखता है । 5. ऐसे भी एक प्रकार के समाज हैं, जो देवानांप्रिय, प्रियदर्शी राजा के मत में साधु । (निर्दोष) हैं। 6. पहले देवानांप्रिय, प्रियदर्शी राजा की पाकशाला (रसोइ) में प्रतिदिन कई ... लाख प्राणी सूप (सब्जी आदि) के लिए मारे जाते थे। 7. ये तीन प्राणी भी पीछे (आगे चलकर) नहीं मारे जायेंगे। २. लोकोपकारी कार्य 1. देवानांप्रिय, प्रियदर्शी राजा के राज्य में सर्वत्र, इसी प्रकार प्रत्यन्तों में- चोल, पाण्डय, सत्यपुत्र, केरलपुत्र, ताम्रपर्णी तक यवनराजा अन्तियोक, उस अन्तियोक के समीप जो राजा हैं, (वहाँ) सर्वत्र, देवानांप्रिय, प्रियदर्शी राजा की -196 प्राकृत गद्य-सोपान Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003807
Book TitlePrakrit Gadya Sopan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1983
Total Pages214
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy