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________________ चेट - जैसे कि आप अनेक आभूषणों से अलंकृत हैं (यह आपकै पुण्य का फल शकार - पाप का (फल) कैसा होता है ? - चेट - जैसे कि मैं दूसरों का अन्न खाने वाला (नौकर) हुआ हूँ (यह मेरे पाप कर्मों का फल है) । अत: अब कोई अनुचित कार्य नहीं करूंगा। शकार - अरे ! (तुम वसन्तसेना को) न मारोगे ? (ऐसा कहकर शकार नौकर को अनेक प्रकार से मारता है) स मारता है) . चेट - हे स्वामी ! मुझे आप पीटें, हे स्वामी ! मुझे आप मार दें तब भी दुष्कार्य नहीं करूंगा । क्योंकिभाग्य (पूर्व जन्मों के पापों) के दोषों से मैं जन्म से ही आपका दास बना हूँ । अतः अब (वसन्तसेना को मारकर) अधिक पाप नहीं करूंगा। इसलिए मैं अनुचित कार्य को त्यागता हूँ। 000 पाठ ३० : अंगूठी की प्राप्ति (इसके बाद नगर का कोतवाल प्रवेश करता है और उसके पीछे-पीछे बंधे हुए मछुआरे को पकड़े हुए दो सिपाही)। धोनों सिपाही - (पीटकर) अरे चोर ! बता, कहाँ पर तुमने इस मणि-जड़ित एवं खुदे हुए नाम वाली राजकीय अंगूठी को प्राप्त किया है ? पुरुष - (भय का अभिनय करते हुए) हे महानुभाव ! मुझ पर प्रसन्न हों। मैं ऐसा (चोरी का) काम करने वाला नहीं हूँ। प्रथम सिपाही - तो क्या तुम उत्तम ब्राह्मण हो, ऐसा मान करके राजा के द्वारा दान __ में (यह अंगूठी) दी गयी है ? पुरुष - इस समय (मेरी बात) सुनिये । मैं शुक्रावतार (नदी के तट) के भीतर रहने वाला धीवर (मछुआरा) हूँ। प्राकृत गद्य-सोपान 193 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003807
Book TitlePrakrit Gadya Sopan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1983
Total Pages214
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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