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________________ ऐसा सुनने पर लोगों ने कहा-'यह सोने का कौन-सा समय है ?' चेले ने कहा'आप लोगों के भोजन के लिए स्वप्न में देखे गये लड्डुओं का कोठा गुरूजी भूल गये थे । अत: फिर से उसे देखने के लिए अब सो गये हैं।' - ऐसा सुनकर-'अहो ! इनकी मूर्खता ?' ऐसा कहकर ताली बजाते हुए हँसते हुए लोग अपने घरों को चले गये। इसलिए स्वप्न में देखा हुआ स्थायी नहीं होता। 000 पाठ २२ : मदनश्री की शिक्षा उज्जयिनी नगरी में विक्रमसेन राजा था। उसन कभी क्रीडा के लिए जाते हुए जिसका पति विदेश गया हुआ है ऐसी सेठ की पत्नि मदनश्री को भवन की मंजिल पर बैठे हुए झरोखे के द्वार से देखा । उस पर आसक्त राजा ने उसके पास अपनी दासी को भेजा । उसने वहाँ जाकर मदनश्री से कहा-'मदनधी ! तुम कृतार्थ हो जो महाराजा के द्वारा चाही गयी हो । अत: उस राजा ने संदेश दिया है-'हे सुन्दरी ! अमृत को तरह तुम्हारे दर्शन के लिए मेरा हृदय उत्कंठित है । एक दिन को मेरे पास आओ अथवा मैं ही छिपे रूप में तुम्हारे यहाँ आ जाता हूँ। हे सुन्दर शरीरवाली ! इस संदेश का उत्तर अवश्य देना ।' मदनश्री ने 'अहो ! मेरे ऊपर राजा का दृढ़ अनुराग है। दूर रहते हुए उसे समझाना संभव नहीं है ।' ऐसा सोचकर 'महाराज मेरे महल पर ही यहाँ आ जाँय' ऐसा उत्तर देकर उस दासी को वापिस भेज दिया। . दासी ने राजा को सब वृतान्त कहा । वह संतुष्ट राजा दोपहर में अंजन के प्रयोग से अदृश्य रूप में उसके घर गया और अंजल धोकर प्रकट हो गया । घबड़ायी हुई मदनश्री ने उसे देखा । उसने सोचा-'यह अनुराग के ग्रह से ग्रसित है। किन्तु मेरे द्वारा प्राण त्यागने पर भी शील को खंडित नहीं किया जाना चाहिए । क्योंकि प्राकृत गद्य-सोपान 175 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003807
Book TitlePrakrit Gadya Sopan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1983
Total Pages214
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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